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इसमें शासन देव-देवी का कोई दोष नहीं|दुष्ट म्लेच्छों के देवों ने मरकी रोग के उपद्रव को जन्म दिया है। उसके सामने हमारी कुछ नहीं चल सकती है। वैसे भी 3 वर्षों बाद तुर्कियों द्वारा इस तक्षशिला नगरी का पतन/भंग होगा। तब तक यदि इस तक्षशिला के मंदिरों व मनुष्यों का रक्षण करना है तो नाडोल में विराज रहे आचार्य मानदेव सूरि जी को तक्षशिला में लाने का प्रयत्न करो। उनके तप का ऐसा प्रभाव है कि कैसा भी उपद्रव क्यों न हो, उनके पधारने से सब शान्त हो जाता है। किन्तु ध्यान रहे 3 साल बाद इस नगरी का ध्वंस निश्चित है। तब तक लोग अन्यत्र चले जाएँ।" इत्यादि कहकर शासनदेवी तो अदृश्य हो गई। समूचे संघ में विचार मंथन चालू हुआ। - समय की पुकार यही थी कि वर्तमान में मरकी रोग को दूर कर प्राण सुरक्षित किए जाए। अतः आचार्य मानदेव सूरीश्वर जी को तक्षशिला बुलाने पर विचार किया। किंतु ऐसी विकट परिस्थिति में कोई घर कुटुम्ब को छोड़ जाने को तैयार न हुआ। अंततः यह जिम्मेदारी वीरदत्त नाम के श्रावक ने स्वीकार की तथा संघ का विनतीपत्र लेकर वह चल पड़ा।
वीरदत्त श्रावक नारदपुरी (नाडोल) पहुँचा। मानदेव सूरि जी के दर्शनार्थ विनती पत्र लेकर उसने उपाश्रय में प्रवेश किया। इस समय आ. मानदेव सूरि जी पर्यकासन लगाकर नाक के अग्रभाग के ऊपर दृष्टि स्थापित कर ध्यान अवस्था में लीन थे। उस समय जया और विजया नाम की 2 देवियां आचार्य श्री को वंदन करने आई थीं किन्तु उनका ध्यान अस्खलित रहे, इस भावना से कोने में बैठी रही। यह दृश्य देखकर वीरदत्त का मन संकल्पों-विकल्पों से भर गया। शंका और संदेह से उसने विचार किया एक तो मध्यान्ह का समय, ऊपर से दो रूपवती अतिसुंदर स्त्रियाँ साधु के पास एकान्त में बैठी हैं। अवश्य ही इनका ध्यान भी ढोंग है। क्या ऐसे व्यभिचारी आचार्यों से कभी उपद्रव शान्त हो सकता है? शासनदेवी ने निश्चित हमसे छल अथवा मजाक किया है। बाहर बैठकर वह ऐसे कुविकल्प चिंतन करने लगा।
जैसे ही मानदेव सूरि जी ने अपना ध्यान पारा, वीरदत्त ने अंदर आते-आते अवज्ञा-आशातना-अविनयपूर्वक गुरुदेव का वंदन किया। उन्हें आभास हो गया कि इस श्रावक ने हम देवियों के आगमन को गलत समझा है और वह आचार्यश्री के संयम पर संदेह कर रहा है। उसके दुर्भावों का आभास होते ही देवियां क्रोधित हो गई।
जयादेवी ने उसे सबक सिखाने के लिए जकड़ कर बाँध लिया और कहने लगी - "दुष्ट! तुझे दिखता नहीं हमारे पैर भूमि से 4 अंगुल ऊपर हैं। हमारे नेत्रों की पलकें नहीं झपकतीं। महावीर पाट परम्परा
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