________________
21. आचार्य श्रीमद् वीर सूरीश्वर जी
धीर सुधीर गंभीर गुरुवर, महावीर मंगलाचार । वीर सूरि जी विमल विचारक, नित् वंदन बारम्बार ॥
आचार्य मानतुंग सूरीश्वर जी के कालोपरान्त वीर सूरि जी भगवान् महावीर की अक्षुण्ण पाट परम्परा के क्रमिक 21वें पट्टधर हुए। अपनी उपदेश शक्ति के बल पर तथा संयम साधना की सुवास के कारण नूतन जैन बनाकर, नूतन जिनालय बनाकर जिनधर्म - जिनशासन की प्रभावना के कार्य गतिमान रखे ।
शासन प्रभावना :
वीर संवत् 770 अर्थात् वि.सं. 300 में नागपुर में तीर्थंकर श्री नमिनाथ जी की प्रतिष्ठा कराकर अपनी धवल यश चन्द्रिका को चतुर्दिक् में विस्तृत किया। वीर वंशावली के उल्लेखानुसार- इस प्रतिष्ठा के समय इन्होंने कई अजैन बंधुओं को जैन बनाया एवं उपकेश वंश यानि ओसवालों में सम्मिलित किया, ऐसे उल्लेख प्राप्त हैं। वीर सूरि जी ने सांचोर में भी शासनपति भगवान् महावीर स्वामी की प्रतिमा की प्रतिष्ठा कराई।
प्रभावक चरित्र में किन्हीं आचार्य वीर सूरि जी के चरित्र में यह लिखा है कि दैवीय सहायता से विजय वीर सूरीश्वर जी अष्टापद गिरिराज की यात्रा करने गए। किंतु वहाँ यात्रा के लिए आए हुए देव का तेज वे सह नहीं पा रहे थे । अतः उन्होंने मंदिर के पुतली के खंभे की आड़ में खड़े रहकर प्रभु के दर्शन किए और स्मृति चिन्ह के रूप में देवों द्वारा चढ़ाए गए अक्षत (चावल) के 4-5 दाने ले लिए। उपाश्रय में लौटकर उन्होंने वे दाने खुले रखे तो चारों ओर सुगंध फैल गई। आश्चर्यमुग्ध बने हुए शिष्यों ने जब ये अक्षतकण देखे तब पता चला कि एक-एक कण करीबन 12 इंच लंबा व 1 इंच चौड़ा था । उपरोक्त संदर्भ में कथित वीर सूरीश्वर जी भगवान् महावीर के 21वें पट्टधर हुए वीर सूरि जी ही हैं, ऐसा निस्संदेह नहीं कहा जा सकता। वीर सूरि जी का कालधर्म वीर सं. 793 यानि वि. सं. 323 में हुआ ।
महावीर पाट परम्परा
333
83