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परिचयात्मिका भूमिका
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स्व. रायबहादुर हीरालालने दिया है। इस पाण्डुलिपिकी तिथि, संवत् १६०६, मार्गशीर्ष कृष्णपक्ष अष्टमी, जो १५४९ ई. है। १९२७-१९२९ में मैंने व्यक्तिगत रूपसे कारंजा जाकर इस पाण्डुलिपिका परीक्षण किया है, और जाँचके तौर पर कुछ मिलान किया है। मुझे मन्दिरके न्यासधारियोंने यह वचन दिया था पाण्डुलिपि मुझे उधार दे दी जायेगी। लेकिन जब मुझे वास्तविक रूपसे इसकी जरूरत पड़ी, तो मैं न्यासधारियोंकी विचित्र मनोवृत्तिके कारण उसे प्राप्त नहीं कर सका। अपने जाँच मिलानसे, लगता है कि यह पाण्डुलिपि 'पी' पाण्डुलिपिके बहुत निकट है, जिसका कि इस संस्करणमें पूरा मिलान किया गया है।
इस जिल्दमें, मैंने अपने मूल पाठकी रचना ऊपर लिखित सामग्रीके आधारपर की है। ऐसे करते हुए मैं 'के' में सुरक्षित पाठोंपर अधिकतर निर्भर रहा हूँ जो उत्तरपुराणकी तीनों पाण्डुलिपियोंमें सबसे पुरानी है।
विषयसामग्रीकी संक्षेपिका २. महापुराणकी इस दूसरी जिल्दमें महापुराण महाकाव्यकी ३७ से ८०-कुल चवालीस सन्धियाँ हैं, और बीस तीर्थंकरोंकी जीवनियोंका वर्णन करती हैं। अजितनाथसे प्रारम्भ होकर नमिनाथ तक, जो २१वें तीर्थंकर है। नौमें-से आठ बलदेवों, वासुदेवों और प्रतिवासुदेवोंका वर्णन है । और बारह चक्रवतियोंमेंसे दस चक्रवर्तियोंका, सगरसे लेकर जयसेन तक। इन जीवनियोंके वर्णनमें कविने परम्परासे प्राप्त सूचनाओंसे काम लिया है, वह अधिकतर गुणभद्रके संस्कृत उत्तरपुराणसे प्रभावित है, ऐसा प्रतीत होता है कि इन महापुरुषोंको जीवनियोंका विस्तार, पुराने साधुओंने वर्गीकृत कर दिया था। परन्तु विषयवस्तुका उपयोग करते हुए व्यक्तिगत रूपसे कवि, विस्तृत वर्णनमें अपनी काव्य-प्रतिभाके उपयोगमें स्वतन्त्र थे। विमलसूरिने 'पउमचरिउ' में कहा है
'नामावलिय निबद्धं आयरियपरम्परागयं सव्वं ।
वोच्छामि पउमचरियं अहाणुपुन्वि समासेण ॥ ऐसा लगता है कि यद्यपि, जैनोंके दोनों सम्प्रदायोंमें जानकारी अधिकतर वर्गीकृत और तालिकाबद्ध रूपमें परम्परासे प्राप्त है, और विषयवस्तुमें काफी समानता है। मैंने स्वयं कूछ तालिकाएँ बनायी है और उन्हें इस जिल्दके परिशिष्टमें दिया गया है। अब मैं सन्धियोंका संक्षेप देना शुरू करता हूँ कि जहाँ सन्धियोंका संक्षेप तालिकाके रूपमें देना सम्भव नहीं है।
XXXVIII-कवि प्रारम्भमें पांच परमेष्ठियोंकी वन्दना करता है और दूसरे तीर्थकर, अजितनाथ की जीवनीका वर्णन करते हए, पाठकोंको काव्यरचना जारी रखनेका पहले, वह कहता है कि कुछ कारणोंस उसका मन उदास था और इसलिए उसने कुछ समयके लिए क रचना बन्द कर दी थी। एक दिन विद्याकी देवी सरस्वती उसके सामने स्वप्नमें प्रकट हुई और बोलीं, 'तुम महत्को नमस्कार करो। कवि जाग पड़ा पर उसे कोई भी दिखाई नहीं दिया। संकटके इस क्षणमें आश्रयदाता भरत उसके घर आया और बोला कि क्या मैंने उसके प्रति कोई अपराध किया है कि जिसके कारण वह काव्यरचना जारी नहीं रख सका । भरतने उसे स्मरण दिलाया कि जीवन क्षणभंगुर है, और उसे अपनी काव्यप्रतिभाका पूरा-पूरा उपयोग करना चाहिए। तब कवि ने आश्रयदाता भरतसे कहा कि मैं अपने मनमें दुःखी हूँ, क्योंकि यह दुनिया दुष्टोंसे भरी है। और इसलिए काव्यरचना जारी रखनेकी रुचि उसमें नहीं है। लेकिन अब वह उसकी प्रार्थनापर फिर काव्यरचना शुरू करेगा क्योंकि वह उसे इनकार नहीं कर सकता। कवि काव्यरचना प्रारम्भ करता है और अजितके जीवनका वर्णन करता है, विस्तारके लिए देखिए टिप्पण और तालिका । परिशिष्ट I, II, III में देखिए !
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