Book Title: Kasaypahudam Part 06
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
View full book text
________________
गा० २२]
मूलपयडिपदेसविहत्तीए फोसणं आदेसेण० णेरइएसु मोह० उक० खेत्तभंगो। अणुक्क० लोग. असंखे भागो छ चोदस० देसूणा । एवं सत्तमाए । पढमपुढवीए खेत्तं । विदियादि जाव छट्टि त्ति मोह. उक० खेत्तभंगो। अणुक्क० सगपोसणं । सन्त्रपंचिंदियतिरिक्ख-सव्वमणुस्स मोह० उक्क० खेत्तभंगो । अणुक्क० लोग० असंखे०भागो सव्वलोगो वा । देवेसु मोह० उक्क० खेत्तं । अणुक० लोग० असंखे०भागो अह-णव चोदस० देसूणा । भवणादि जाव अच्चुदा त्ति उक्क० खेत्तभंगो । अणुक्क० सग-सगपोसणं । उवरि उक्कस्साणुक० खेत्तभंगो । एवं णेदव्वं जाव अणाहारो त्ति ।
३१. जहण्णए पयदं । दुविहो णि०-ओघेण आदेसे० । ओघेण मोह० जहण्णाजहण्णपदेसविह० उकस्साणुक्कस्स०भंगो । एवं सव्वमग्गणासु णेदव्वं जाव अणाहारो त्ति । मोहनीयको उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवालोंका स्पर्शन क्षेत्रकी तरह है। अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवालों का स्पर्शन लोकका असंख्यातवाँ भाग और त्रसनालीके कुछ कम छ बटे चौदह भागप्रमाण है। इसी प्रकार सातवीं पृथिवीमें जानना चाहिये। पहली पृथिवीमें क्षेत्रके समान स्पर्शन है। दूसरीसे लेकर छठी पृथिवी पर्यन्त मोहकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवालोंका स्पर्शन क्षेत्रकी तरह है। अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवालोंका अपना अपना स्पर्शन कहना चाहिये । सब पश्चेन्द्रिय तिर्यञ्च और सब मनुष्योंम मोहनीयकी उत्कृष्ट विभक्तिवालोंका स्पर्शन क्षेत्रकी तरह है। अनुत्कृष्ट विभक्तिवालोंका स्पर्शन लोकका असंख्यातवाँ भाग और सर्वलोक है। देवोंमें मोहनीयकी उत्कृष्ट विभक्तिवालोंका स्पर्शन क्षेत्रकी तरह है। अनुत्कृष्ट विभक्तिवालोंका स्पर्शन लोकका असंख्यातवाँ भाग और त्रसनालीके कुछ कम आठ व कुछ कम नौ बटे चौदह भागप्रमाण है। भवनवासीसे लेकर अच्युत स्वर्ग तकके देवोंमें उत्कृष्ट विभक्तिवालोंका स्पर्शन क्षेत्र की तरह है। अनुत्कृष्ट विभक्तिवालोंका अपना अपना स्पर्शन है। अच्युत स्वर्गसे ऊपर उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट विभक्तिवालोंका स्पर्शन क्षेत्रकी तरह है। इस प्रकार अनाहारी पर्यन्त ले जाना चाहिये।
३१. जघन्यसे प्रयोजन है। निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे मोहनीयकी जघन्य प्रदेशविभक्तिवालोंका स्पर्शन उत्कृष्ट विभक्तिवालोंके स्पर्शनकी तरह है।
और अजघन्य विभक्तिवालोंका स्पर्शन अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवालोंकी बरह है। इस प्रकार अनाहारी पर्यन्त सब मार्गणाओंमें ले जाना चाहिए।
विशेषार्थ-उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका काल एक समय कहा है और वह विभक्ति सातवें नरकमें तो अन्तिम अन्तर्मुहूर्तके अन्तिम समयमें या प्रथम समयमें होती है और अन्यत्र जन्म लेनेके प्रथम समयमें होती है, अतः ओघसे और आदेशसे उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवालोंका जो क्षेत्र है वही स्पर्शन भी है। अर्थात् लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्र और स्पर्शन दोनों हैं। किन्तु अनुत्कृष्ट विभक्ति एकेन्द्रियादि सब जीवोंके पाई जाती है अतः ओघसे अनुत्कृष्ट विभक्तिवालोंका स्पर्शन क्षेत्र की ही तरह सर्वलोक है क्योंकि सर्वलोकमें वे पाये जाते हैं। तथा आदेशसे नारकियोंमें वर्तमान कालकी अपेक्षा लोकका असंख्यातवाँ भाग स्पर्शन है और अतीतकालकी अपेक्षा स्वस्थानस्वस्थान, विहारवत्स्वथान, वेदना, कषाय और विक्रियाके द्वारा लोकका असंख्यातवाँ भाग स्पर्शन है । तथा मारणान्तिक और उपपादपदके द्वारा त्रसनालीके
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org