Book Title: Kasaypahudam Part 06
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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गा० २२]
मूलपयडिपदेसविहत्तीए परिमाणं $ २६. परिमाणं दुविहं-जहण्णमुक्कस्सं च । उक्कस्से पयदं । दुविहो णि०ओघेण आदेसे० । ओघेण मोह० उकस्सपदेसवि० के० १ असंखेज्जा आवलि० असंखे०भागमेत्ता । अणुक्क० विह० अणंता । एवं तिरिक्खोघं । आदेसेण णेरइएसु मोह० उक्क० अणुक्क० असंखेजा। एवं सव्वणेरइय-सव्वपंचिंदियतिरिक्ख-मणुस्स-मणुस्सअपज० देव-भवणादि जाव सहस्सारो त्ति। मणुस्सपज०-मणुसिणी. सव्वट्ठसिद्धिम्हि उक्कस्साणुक० संखेजा । आणदादि जाव अवराइदो ति उक० संखेजा। अणुक्क० असंखेजा । एवं णेदव्वं जाव अणाहारि ति ।
___६ २७. जहण्णए पयदं । दुविहो णि०–ओघेण आदेसे० । ओघेण मोह० ज० वि० केत्ति० १ संखेजा । अज० अणंता० । एवं तिरिक्खोघं । आदेसे० णेरइएसु मोह० जह० ओघं । अज. असंखेजा। एवं सव्वणेरइय-सव्वपंचिंदियतिरिक्ख-मणुस-मणुससब गतियों में होते हैं । मात्र मनुष्य अपर्याप्तकोंमें जघन्यकी अपेक्षा आठ और अजघन्यकी अपेक्षा आठ भंग होते हैं। इन भंगोंका नामनिर्देश उत्कृष्टके समान कर लेना चाहिये । इस प्रकार आगे भी निरन्तर और सान्तर मार्गणाओंका ख्याल करके जहाँ जो व्यवस्था सम्भव हो उसे वहाँ लगा लेनी चाहिये।
२६. परिमाण दो प्रकारका है-जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टसे प्रयोजन है। निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे मोहनीयकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति वाले जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं, अर्थात् आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण हैं। अनुत्कृष्ट विभक्तिवाले अनन्त हैं । इसी प्रकार सामान्य तिर्यञ्चोंमें जानना चाहिये। आदेशसे नारकियोंमें मोहनीयकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले असंख्यात हैं। इस प्रकार सब नारकी, सब पञ्चेन्द्रियतिर्यश्च, सामान्य मनुष्य, मनुष्य अपर्याप्त, सामान्य देव और भवनवासीसे लेकर सहस्रार स्वर्ग तकके देवोंमें जानना चाहिये । मनुष्य पर्याप्त, मनुष्यिनी और सर्वार्थसिद्धिके देवोंमें उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट विभक्तिवाले जीव संख्यात हैं। आनत स्वर्गसे लेकर अपराजित विमान तकके देवोंमें उत्कृष्ट विभक्तिवाले संख्यात हैं और अनुत्कृष्ट विभक्तिवाले असंख्यात हैं। इस प्रकार अनाहारी पर्यन्त ले जाना चाहिये।
विशेषार्थ--जो राशियाँ अनन्त हैं उनमें आवलिके असंख्यातवें भाग जीव उत्कृष्ट विभक्तिवाले और शेष अनन्त जीव अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले होते हैं । जो राशियाँ असंख्यात हैं उनमें दोनों विभक्तिवालोंका प्रमाण असंख्यात असंख्यात होता है। किन्तु आनतसे लेकर अपराजित विमान पर्यन्त उत्कृष्ट विभक्तिवालोंको प्रमाण संख्यात और अनुत्कृष्ट विभक्तिवालोंका प्रमाण असंख्यात है, क्योंकि उत्कृष्ट विभक्तिवाले आनतादिकमें पर्याप्त मनुष्य ही जाकर पैदा होते हैं और ये संख्यात हैं। तथा जो राशियाँ संख्यात हैं उनमें दोनों विभक्तिवालोंका प्रमाण संख्यात है।
६२७. जघन्यसे प्रयोजन है। निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश। ओघसे मोहनीयकी जघन्य प्रदेशविभक्तिवाले कितने हैं ? संख्यात हैं। अजघन्य प्रदेशविभक्तिवाले अनन्त हैं। इसी प्रकार सामान्य तिर्यञ्चोंमें जानना चाहिए। आदेशसे नारकियोंमें मोहनीयकी जघन्य विभक्तिबाले ओघकी तरह हैं। अजघन्य विभक्तिवाले असंख्यात हैं। इसी प्रकार सब नारकी, सब पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च, सामान्य मनुष्य, मनुष्य अपर्याप्त, सामान्य देव और
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