Book Title: Kasaypahudam Part 06
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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.. जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ २५. जहण्णए पयदं । तं चैव अट्ठपदं कादूण पुणो एदेण अट्ठपदेण उक्कस्सभंगो । एवं सव्वमग्गणासु णेदव्वं । जहाँ अविभक्तिपद रखा है वहाँ अनुत्सृष्टकी अपेक्षा विभक्ति शब्द रखना चाहिये। इसी प्रकार सब नारकी, सब तिर्यश्च, तीन प्रकारके मनुष्य और सब देवोंमें जानना चाहिये। मनुष्यअपर्याप्तकोंमें उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिमेंसे प्रत्येककी अपेक्षा आठ आठ भंग होते हैं। इस प्रकार अनाहारी पर्यन्त ले जाना चाहिये।
विशेषार्थ-जिनके उत्कृष्ट प्रदेशसंचय होता है उनके उस समय अनुत्कृष्ट प्रदेशसंचय नहीं होता और जिनके अनुत्कृष्ट प्रदेशसंचय होता है उनके उस समय उत्कृष्ट प्रदेशसंचय नहीं होता। यह अर्थपद है, इसको आधार बनाकर उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिकी अपेक्षासे तीन और अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिकी अपेक्षासे तीन कुल प्रत्येककी अपेक्षा तीन तीन भंग मूलमें बतलाये गये हैं। उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले जीव कम होते हैं और अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले अधिक होते
तथा ऐसा भी समय होता है जब उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाला एक भी जीव नहीं होता । अतः जब सब जीव मोहकी उत्कृष्ट विभक्तिवाले नहीं होते तब सब जीव मोहकी अनुत्कृष्ट विभक्तिवाले होते हैं। और जब एक जीव मोहकी उत्कृष्ट विभक्तिवाला होता है तब शेष जीव मोहकी अनुत्कृष्ट विभक्तिवाले होते हैं। तथा जब अनेक जीव मोहकी उत्कृष्ट विभक्तिवाले होते हैं तब अनेक शेष जीव अनुत्कृष्ट विभक्तिवाले होते हैं, इस प्रकार उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट की विभक्ति और अविभक्तिकी अपेक्षा तीन तीन भंग होते हैं किन्तु मनुष्य अपर्याप्तक चूंकि सान्तरमार्गणा है, अतः उसमें उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिकी अपेक्षा आठ और अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिकी अपेक्षा आठ भंग प्राप्त होते हैं। यथा-कदाचित् सब लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्य उत्कृष्ट प्रदेशअविभक्तिवाले होते हैं १। कदाचित् सब उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले होते हैं २ । कदाचित् एक उत्कृष्ट प्रदेशअविभक्तिवाला होता है ३। कदाचित् एक उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाला होता है ४। ये चार एक संयोगी भंग है। दो संयोगी भंग भी इतने ही होते हैं। इस प्रकार ये स भंग हुए । अनुत्कृष्टकी अपेक्षा भी इतने ही भंग जानने चाहिये। इस प्रकार सान्तर और निरन्तर मार्गणाओंका ख्याल करके जहाँ जो व्यवस्था लागू हो वहाँ उसके अनुसार भंग ले आने चाहिये।
६२५. जघन्यसे प्रयोजन है। उत्कृष्टमें कहे गये पदको ही अर्थपद करके फिर उस अर्थपदके अनुसार जघन्यमें भी उत्कृष्टके समान भंग होते हैं। इस प्रकार सब मार्गणाओंमें ले जाना चाहिये।
विशेषार्थ-जिसके जघन्य प्रदेशविभक्ति होती है उसके अजघन्य प्रदेशविभक्ति नहीं होती और जिसके अजघन्य प्रदेशविभक्ति होती है उसके जघन्य प्रदेशविभक्ति नहीं होती। यह अर्थपद है। इसको लेकर उत्कृष्ट और अनुत्कृष्टकी तरह ही भंग योजना कर लेनी चाहिये। अर्थात् कदाचित् सब जीव मोहकी जघन्य प्रदेशविभक्ति वाले नहीं होते १। कदाचित् अनेक जीव अविभक्तिवाले और एक जीव विभक्तिवाला होता है २ । कदाचित् अनेक जीव विभक्तिवाले और अनेक जीव अविभक्तिवाले होते हैं ३ । इसी प्रकार अविभक्तिके स्थानमें विभक्ति करके अजघन्यके भी तीन भंग होते हैं—कदाचित् सब जीव मोहकी अजघन्य प्रदेशविभक्तिवाले होते हैं १ । कदाचित् अनेक जीव विभक्तिवाले और एक जीव अविभक्तिवाला होता है । कदाचित् अनेक जीव विभक्तिवाले और अनेक जीव अविभक्तिवाले होते हैं ३ । ये तीन तीन भंग
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