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आध्यात्मिक क्षेत्र में-कर्म-विज्ञान की उपयोगिता २७
भौतिकता और आध्यात्मिकता की आराधना में अन्तर
साथ ही कर्मविज्ञान यह भी बताता है कि भौतिकता की आराधना से तो आत्मशक्तियों का ह्रास ही होता है, जबकि कर्मविज्ञान द्वारा निर्दिष्ट आध्यात्मिकता की आराधना से उनका विकास होता है, जीव कर्मों से मुक्ति पाने का उपक्रम कर सकता है, फलतः वीतरागता का प्रकाश उसके जीवन की वृत्ति-प्रवृत्तियों को आलोकित कर पाता है। अनादिकाल से मोहमहा-विद्यालय में अभ्यास करने वाला जीव जहाँ भी जाता है, और जिस किसी सजीव-निर्जीव पर-पदार्थ के सम्पर्क में आता है, वह या तो राग, मोह, आसक्तिभाव धारण करता है, या फिर द्वेषभाव धारण करता है। फलतः तीव्रगति से कर्मबन्ध अधिकाधिक सुदृढ़ होता जाता है। वीतरागता का प्रकाश उसके जीवन पथ को आलोकित नहीं कर पाता।' कर्मविज्ञान मुमुक्षु आत्मा के लिए दर्पण के समान
कर्मविज्ञान का अनुशीलन-परिशीलन करने से आत्मा को यह पता चल जाता है कि इस समय कौन-कौन से कर्म मेरी आत्मा के साथ बद्ध हैं ? किन-किन कर्मों का उदय है ? किन कर्मों की मैं उदीरणा कर सकता हूँ? किस प्रकार मैं प्रत्येक सजीवनिर्जीव पदार्थ के साथ संयोग होते समय राग-द्वेष से बचकर केवल ज्ञाता-द्रष्टा रह सकता हूँ? मेरी आत्मा की भूमिका के अनुरूप कहाँ-कहाँ मुझे शुद्ध कर्म (अबन्धक कर्म-अकर्म) करने में बाधा आती है ? उस बाधा को दूर करने का उपाय क्या है ? कर्मों के आने के कौन-कौन से स्रोत हैं ? उन्हें मैं कैसे बंद कर सकता हूँ? ऐसा कौन सा उपाय है जिससे देह, गेह, स्वजनादि पर मोह, ममत्व, मूर्छा या आसक्ति से जो कर्म आते हैं, उनसे सावधान रहकर अशुभ कर्मों से तो अवश्य ही दूर रहूँ, शुभ कर्मों से भी विवशतावश वास्ता रछं। इस प्रकार कर्मविज्ञान मुमुक्षु आत्मा के लिए दर्पण के समान है। कर्मविज्ञान के अभ्यास से आत्मा में निराकुलता और शान्ति का अनुभव . . . इसके विशद और गहन अभ्यास से व्यक्ति का राग-द्वेष-मोह का अभ्यास मन्द-मन्दतर तथा इनके निवारण का अभ्यास तीव्र-तीव्रतर होने लगता है। फिर वह आर्त-रौद्रध्यानों से आत्मा को बचाकर धर्म-शुक्लध्यान की विमल चन्द्रिका का प्रकाश और आत्मविकास प्राप्त कर लेता है। वहाँ सुध्यान की चांदनी आनन्दामृत को प्रवाहित करती है, राग-द्वेष-मोह एवं कषाय के सन्ताप का तपन मिटा देती है। जिस प्रकार सागर के अतल तल में डुबकी लगाने वाले को बाह्य जगत् की शुभ-अशुभ बातों का पता नहीं चलता, इसी प्रकार कर्मविज्ञान के अगाध महासागर में गोता लगाने वाले
१. महाबंधो भा. १, की प्रस्तावना (पं. सुमेरुचन्द्र दिवाकर) से भावांश उद्धृत पृ.३१
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