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आध्यात्मिक क्षेत्र में-कर्म-विज्ञान की उपयोगिता २५
को और सुदृढ़ करता रहता है ? साथ ही उन्होंने यह भी बताया है कि कैसे- कैसे वह कर्मों को आने से रोक सकता है और उनके बंधन में जकड़ने से स्वयं को बचा सकता है, कैसे पूर्वकृत कर्मों को तोड़ सकता है ? भौतिक उपयोगितावादी कविज्ञान से लाभ नहीं उठा पाते
यद्यपि भौतिक उपयोगितावादी कर्मविज्ञान के रहस्य का आनन्द नहीं ले सकता; क्योंकि उसकी दृष्टि में सांसारिक भौतिक पदार्थों की उपलब्धि और अपने तुच्छ स्वार्थ की सिद्धि ही सर्वोपरि उपलब्धि है। कतिपय लोगों की यह भ्रान्त धारणा रही है कि भौतिकविज्ञान की तरह कर्मविज्ञान भी अपूर्व चमत्कारों से भरा है। इसमें वे विद्याएँ हैं, जिनके बल पर लोहे से सोना बनाया जा सकता है, बिना ही विमान के आकाश में उड़ा जा सकता है, किसी भी देश को जीता जा सकता है इत्यादि।
वैज्ञानिक चमत्कारों का खजाना मान कर कतिपय लोगों की कर्मविज्ञान के प्रति रुचि रही। परन्तु कर्मों के विविध आनव और बंध तथा संवर और निर्जरा के विवेचन का पठन-श्रवण किया तो उन्हें कर्मविज्ञान नीरस और निरर्थक बौद्धिक व्यायाम प्रतीत हुआ। ऐसे अर्थभक्त अन्ध-स्वार्थभक्त लोगों ने कहना शुरू किया“अपना काम करो। ऐसे कर्म के बहु-आयामी जाल में अपना बहुमूल्य समय क्यों व्यय किया जाए ? क्यों इस नीरस कर्मविज्ञान में अपना सिर खपाया जाए?" वास्तव में लौकिक अर्थभक्त या अन्धस्वार्थभक्त अनर्थ की जननी एवं आत्मगुणनिधि का लोप करने वाली मोहक सामग्री को सर्वस्व मानता है।
यद्यपि कर्मविज्ञान ने जीवविज्ञान, भौतिकविज्ञान, मनोविज्ञान, शरीरविज्ञान आदि के नियमों और सिद्धान्तों के साथ सामंजस्य बिठाने का प्रयत्न किया है। परन्तु भौतिकविज्ञान के या अर्थ के पुजारियों को इन बातों और रहस्यों को जानने की उत्सुकता नहीं होती। वे तो कर्मविज्ञान में भौतिकविज्ञान की केवल पौद्गलिक सामग्री न पाकर निराश हो जाते हैं। किन्तु कर्मविज्ञान का मर्मज्ञ तथा आत्मनिधि के वैभव .. को समझने और पाने के लिए उत्सुक, जिज्ञासु, मुमुक्षु व्यक्ति यह अनुभव करता है कि कर्मविज्ञान विविध वैज्ञानिक चमत्कारों से भरा पड़ा है। कर्मों के जाल में फंसाने वाली भौतिक पदार्थ की तथाकथित ज्ञान सामग्री तो बन्धन को और अधिक पुष्ट करती है। वह तो महान् अविद्या, अज्ञान या मोहजनित मिथ्यात्व है। ___ कर्मविज्ञान में आत्मा कर्मों की राशि से पृथक् करके अपनी अनन्त चतुष्टयी, अमर्यादित एवं स्थायी विभूतियों से सुशोभित, सुषुप्त आत्मत्व को अभिव्यक्त करने की कला, विद्या या विज्ञान का चमत्कार है।'
१. महाबंधो भा. १ की प्रस्तावना (पं. सुमेरुचन्द्र दिवाकर) से भावांश उद्धृत पृ. ३०-३१
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