Book Title: Jindutta Charit
Author(s): Gunbhadrasuri, Tonkwala, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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तीव्र प्रताप सम्पन्नो यो जगताप नाशनः ।
श्रविग्रहोऽपि सर्वाङ्ग
सौन्दर्य
यद्यपि चन्द्रशेखर नृपति का प्रताप अद्वितीय था किन्तु उस प्रभुता में संताप नहीं था । अर्थात् भ्रातंक रहित प्रभुत्व होने से जगत प्रजा का संताप नष्ट करने वाला था । श्रविग्रह - शत्रुभाव विहीन होने से सौम्य आकृति था । प्रविग्रह अर्थात् विग्रह शरीर रहित भी अर्थ होता है । शरीर रहित घनङ्ग कामदेव को कहते हैं परन्तु यह राजा प्रतनु- श्रनङ्ग होकर भी कामदेव पर विजय करने वाला था । भोमासक्त नहीं था । सर्वाङ्ग सुन्दर होने से कान्तिमान था। इसमें विरोधाभास दिखाया है । शरीर रहित और सर्वाङ्ग सुन्दर परस्पर विरोधी हैं । परन्तु यहाँ भूरति के प्रान्तरिक सौन्दर्य और विषयासक्ति के प्रभाव से यह विरोध प्रतिभासित नहीं होता ।। ३१ ।।
जितमन्मथः ॥ ३१ ॥
कामार्थ योस्तथा नृपोयः कदाऽपि न मोदते । जिनीयिया यमं मार्ग नित्य मतत्रितः ।। ३२ ।।
इस भूपति के काम और अर्थ दोनों पुरुषार्थ होड़ लगाये बढ़ रहे थे किन्तु राजा इनमें मुग्ध न होकर जिनेन्द्र भगवान द्वारा प्रतिपादित यथार्थं जिन धर्म रूप पुरुषार्थ की सिद्धि में ही सतत सत्पर रहता था । अर्थात् प्रमाद रहित जिन धर्म मार्ग में प्रारूद रहता था - नाना प्रकार धर्म मार्ग का द्योतन करता था ।। ३२ ।।
सेमुशो | विभेव भास्वतो यस्य ककुभः सहसंभवाः ।। ३३ ।।
गज विद्याश्वतत्रोपि भासयामास
चारों राज विद्याएँ - १. प्राविक्षिको (विज्ञान), २. त्रयी (वेद), ३. वार्ता (अर्थशास्त्र), ४. दण्ड नीति (राजनीति) पूर्णतः प्रकाशित हो रही थीं। उसके वैभव रूपी चन्द्र प्रकाश से राज ज्योतिर्मय था जिस प्रकार रात्रि में चन्द्र कान्ति से दिशा मण्डल प्रतिशय शोभायमान होता है उसी प्रकार राजविभूति से प्रजा शोभायमान थी। वह राजनीति के छं गुणों से युक्त था - अर्थात् १ सन्धि ( मेल करना ), २. विग्रह ( युद्ध करना ), ३: यान ( प्राक्रमरण करता ), ४. आसन (घेरा डालना), ५. संश्रय (अन्य राजा का श्राश्रय लेना) और ६. द्वेषीभाव (फुट डालना) ये पद गुण हैं। धर्म, अर्थ और काम रूप पुरुषार्थी के समन्वय स्वरूप को
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