Book Title: Jindutta Charit
Author(s): Gunbhadrasuri, Tonkwala, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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ओह ! कहाँ तो यह तीनों लोकों को मोहने वाला अद्वितीय वययौवन है । सर्व को कामदेव से पीड़ित कराने वाला रूप है और कहाँ यह इसकी दारूण दशा है ॥ ११० ।।
तदिहैव विनिक्षिप्य व्यसने विधिना घुना। चकऽमृते कथं तत्र कालकूट विमित्ररणम् ॥ ११ ॥
हे भगवन ! यह क्या भाग्य की विडम्बना है, जो इस समय इस सुन्दरी को इस प्रकार की दारुण दशा में डाला है। मालूम होता है दुर्वार विधि ने अमृत में विष घोल दिया है । इस प्रकार क्यों किया यह समझ में नहीं पाता ।। १११ ।।
अथवा प्राकृतासात प्रबन्ध वश यत्तिनः । एवं हन्त प्रजायन्ते जन्तपो दुःख भागतम् ॥ ११२!।
अथवा पूजित असाता वेदनीय कर्म के उदय के वशवति हो इसे यह दुःख हुमा है। क्योंकि प्राणियों को निजार्जित कर्मानुसार व्याधि व्यसन पीड़ा सहन करना पड़ता है ॥ ११२॥
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उवाच च सुते शोक विमुच्य सकलं सुखम् । तिष्ठात्र धर्म तनिष्ठा भगिन्या सहितानया ॥ ११३ ॥
इस प्रकार कुछ सण विचार कर सेठ उससे बोला, हे पुत्रि! चिन्ता मत करो, शोक छोड़ो, हर प्रकार सुख से इस (विमला) अपनी बहिन के साथ धर्म सेवन करते हुए रहो । सर्व सुविधा यहाँ समझो। ११३ ।।
नूनं य एष नाथस्ते पतिरस्थाः स एव हि । केनाऽपि हेतुना ते सफला वां मनोरथाः ।। ११४ ।।
पुनः वह कहने लगा, निश्चय ही जो तुम्हारा पति है वही मेरी पुत्री का भी होना चाहिए किसी भी उपाय से प्राप लोगों का मनोरथ सिद्ध हो ॥ ११४॥
युषयो स्तस्य वात्राऽपि साकृति: शुभ दर्शने । यया भवन्ति निः शेष कल्याणानि निरन्तरम ॥ ११५॥
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