Book Title: Jindutta Charit
Author(s): Gunbhadrasuri, Tonkwala, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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दुष्ट-शिष्ट पर्थात् शुभाशुभ - हेयोपादेय समस्त तत्त्वों के ज्ञाता वे मुनीन्द्र अपने स्वभाव में लीन थे । उनका शुभ नाम श्री विमल मुनीन्द्र था । उन्हें देखते ही देव प्रति भक्ति एलिसे उनके चरणों में पड़ा । प्रर्थात् नमस्कार किया ॥ ८५ ॥
श्रचिन्तयच्च संसारे द्वावेव सुखिना जनाँ । पद्मशतपत्र मापते यस्य यच्च जितेन्द्रियः ॥ ८६ ॥
वह चिन्तवन करने लगा, अहो ! संसार में दो ही सुखी हैं। एक तो पद्मछत्रधारी चक्री और दूसरे ये जितेन्द्रिय मुनीश्वर ।। ८६ ।।
किलोऽपि न तत् सौख्यं यदेतस्य तपस्यतः । राग रोष वशश्चक्री मतिस्ताभ्यां विवर्जितः ॥ ८७ ॥
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तो भी उनमें चक्रवर्ती भी उस सुख को प्राप्त नहीं कर सकता जिस आत्मानन्द का अनुभव इन्हें इस तप से प्राप्त हो रहा है । क्योंकि चक्रवर्ती राग-द्वेष के वशवर्ती है और ये उनसे ( राग-द्वेष से ) सर्वथा रहित हैं । वीतरागी, समदर्शी हैं ॥ ८७ ॥
चिन्तयित्वेति संनम्य भूयो भूयोऽपि भक्तितः ।
सं जगाम यथा भीष्टं करोत्येवं च नित्यशः ॥ ८८ ॥
इस प्रकार बार-बार चिल्लवन कर उसने पुनः पुनः उन गुरुदेव के चरणों में विशेष अनुराग एवं भक्ति से नमस्कार किया पुन: अपने श्रभीष्ट स्थान को ( वणिक ) चला गया। इस प्रकार वह प्रतिदिन वहाँ ग्राकर उन ऋषिराज मुनिपुङ्गव के दर्शन करने लगा ॥ ८८ ॥
आतेऽन्यवर यत्तेस्तस्य पारगादिवसे सति । चिन्तितं मानसे तेन सद्गुरु ग्राम वासिना ॥ ८६ ॥
शनं शनं: एक मास पूर्ण हुआ । पारणा का दिन माया । वह उन मुनीश्वर के गुण समूह में निवास करने वाला वणिक् विचार करता है मन में || ६ ||
कस्याद्य मन्दिरं पाद पांसुभिः पुण्य भागिनः । करिष्यत्यद्य कल्याण भाजनं यति नायकः ॥ ६० ॥
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