Book Title: Jindutta Charit
Author(s): Gunbhadrasuri, Tonkwala, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti

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Page 214
________________ 1 प्रथम चम्पानगरी में, दूसरी सिंहल द्वीप में, तीसरी रथनुपुर द्वीप मैं और चौथी चम्पापुर नगर में चारों नारी रत्न उत्पन्न हुयीं ॥ ६ ॥ विमलादिमतिः पूर्वा श्रीमती यदिता परा । श्रृंगारादि मतिश्वान्या विलासादि मतिस्तथा ॥ ७ ॥ प्रथम का नाम विमलामती, द्वितीया का नाम श्रीमती, तीसरी का नाम श्रृंगारमती और चौथी का नाम विलासमती विख्यात हुमा ॥ ७ ॥ परपोतास्वमा सर्वास्तत्र तत्र नरन्तरम् । अनिच्छन्त्यः क्रमाद्भद्र भवत् सङ्गम लालसाः ॥ ८ ॥ हे भद्र ये चारों ही श्रन्य पुरुषों से विरक्त, तुम्हारे ही संगम की लालसा रखने वाली उस उस नगर में जाकर तुमने वरण की । श्रतः क्रमशः तुम इनकी जन्म भूमि में पहुँचे और पूर्व भवजन्य स्नेह से तुम्हारे सङ्गम की इन्हें अभिलाषा हुयी। तदनुसार तुम्हारी पत्नियाँ हुयीं ॥ ८ ॥ माहात्म्या तस्य दानस्य सार्थमाभिनिरन्तरम् । सारं संसार वासस्य भुज्यते भवता सुखम् ॥ ६ ॥ 4 यह सब उस आहार दान का ही माहात्म्य है कि तुम इन चारों प्रिय वल्लभायों के साथ निरन्तर संसार वास के सारभूत सुख को भोग रहे हो ॥ ६ ॥ निगद्येति यतौ तत्र विरते स्मृत निज जन्म समताभिर्मुमूर्च्छ च ततो वानसौ । द्रुतम् ॥ १० ॥ इस प्रकार उन दिव्य ज्ञानधारी परम गुरु श्री मुनीन्द्र ने इनके पूर्वभव स्पष्ट रूप से वर्णित किये। जिसे सुनकर उसे उसी समय जातिस्मरण हो गया । अपने-अपने पूर्वभव का समस्त वृत्तान्त चित्रपट की भाँति इसके समक्ष भाया और उसी समय मूच्छित हो गया ।। १० ।। श्रचिरादुप धारं स समासाद्यततो जबात् । अङ्गनाभिः समं पृष्ट उत्थितो विस्मिते जनः ॥ ११ ॥ शीघ्र ही उचित शीतोपचारादि करने पर शीघ्र ही संज्ञा - सचेतना प्राप्त की और अपनी प्रियाओं के साथ उठ बैठा । उपस्थित जन विस्मित और अचेत होने का कारण पूछा ।। ११ ।। हुए १८२ ]

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