Book Title: Jindutta Charit
Author(s): Gunbhadrasuri, Tonkwala, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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गईं। अपने पति का अनुकरण कर निर्मल चित्त से सभी ने दीक्षा धारण की । शुक्ल एक साड़ी धारण कर भ्रात्म कल्याण में प्रारूढ़ हुयीं ॥ ६३ ॥
समस्तं
विषिताङ्ग
श्रुतं
प्रकीर्णकाव्यं
गुरो: सधर्म
समोपे दानेन
समषीत्य
तपसी
ननन्द
पूर्व
सम्यक् ।
निवासः ।।
पृथ्वीम् ।। ६४ ।।
अब उन मुनिराज जिनदत्त स्वामी ने क्रमश: विधिवत् श्रङ्ग र पूर्वो का अध्ययन किया। सम्यक् प्रकार प्रकीकों को पढ़ा। गुरुदेव के समीप में रहकर आगमाभ्यास के साथ उग्र तपश्चरण करने लगे तथा सद्धर्मदान प्रदान कर पृथ्वी को प्रानन्दित क्रिया ।। ६४ ।
कुवरियो भव वारि राशि लग्गं सीव्रं तपः कारणम् । सम्यक सिद्धि सुखस्य संयम निधिर्धात्रीं विहृत्यागमत् ॥ सम्मेवं मुदिता गयो मुनि जनैः सार्द्धं विबुध्यात्मनः । प्राप्तं प्रान्तमशेष दोष शमनीं कृत्वा च सल्लेखनाम् ।। ६५ ।।
संसार समुद्र को पार करने के लिए नौका स्वरूप घोर--कठोर नाना प्रकार तपश्चरण करते हुए बिहार किया। सम्यक् सिद्धि का निमित्त भूत उत्तम संग्रम की साधना करते हुए श्रभ्य उग्र तपस्वियों के साथ श्री मुदित वे श्री मुनि परम पवित्र श्री सम्मेद शिखर पर्वत राज पर पधारे। अपने अंतिम काल में सकल सल्लेखना धारण की। प्रशेष दोषों-कर्मों का नाश करने वाली समाधि धारण की ।। ६५ ।।
तत्राराध्य चतुविधां स विधना सा तदाराधनाम् । त्यक्त्वा सव्रतमै तपोभिरभिक नौस्वातनुत्वं तनुम् ॥ कल्पेनल्प सुखालये सम भवत् सम्यक्त्व रस्नाञ्चित | देवो दिव्य विलासिनी जन मनो माणिक्य चौरोष्टमे ।। ६६ ।।
चारों प्राराधनाएँ - दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप आराधनाओं को सिद्ध किया । विधिवत् शरीर को कुश किया, कषायों का नाश किया । तीव्र तप एवं ध्यान द्वारा श्रनरूप काल पर्यन्त सुख स्थान में स्थित हो निज स्वभाव रतन्त्रय से अलंकृत हुआ । समस्त दिव्य विलासिनियों के मन माणिक्य को चुराने वाला भ्रष्टम स्वर्ग को प्राप्त किया ।। ३६ ।
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