Book Title: Jindutta Charit
Author(s): Gunbhadrasuri, Tonkwala, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti

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Page 222
________________ वही सम्यक्त्व पूर्वक पालनीय है । अतः प्राप शुद्ध गृहस्थ धर्म ही सेवन करो ।। ४६ ।। अतो गृहस्थ भावस्थो ज्ञात तत्त्वो भवानिह । दान पूजा रतः शोल सम्पन्न स्तनुताद्वितम् ॥ ५० ॥ अतएव पाप गृहाश्रम में गार्हस्थ भाव में रहकर तत्त्वों का परिज्ञान करो । दान, पूजा में रत हो शील सम्पन्न होकर भात्म हित विस्तृत करो ।। ५०11 विरते प्रतिपद्येति यतोशे स जगाविति । स्मित्त्वोचितं म नो नाथ गुरूणां दातुमुत्तरम् ॥ ५१ ।। इस प्रकार सम्यक प्रकार यति धर्म का ज्ञान कराया और उसकी कठिनाइयों का उपदेश दिया। समझा कर जब यति राज ने विराम लिया तब कूमार (जिनदत्त) मुस्कुराता हुआ बोला "हे नाथ ! गुरुजनों को उत्तर देना उचित नहीं है" ।। ५१ ।। जानन्ति च य एषात्र युक्ता युक्त यथाभवत् । प्रसादो जल्प यत्येष तेषामेव तथापि माम् ।। ५२ ।। यहाँ जो युक्त और अयुक्त कार्यों को यथोचित जानते हैं उनका प्रसाद ही मुझे यहाँ कह रहा है । अर्थात् विवेक पूर्वक मैं कुछ कह रहा हूँ ।। ५२ ।। तपसो दुष्करस्वं यत् पूर्व मुक्त महामुने । तत्तथैव समस्तं हि को न वेत्तीति बुद्धिमान् ।। ५३ ॥ हे महामुने ! आपने उपर्युक्त प्रकार तप को अति दुष्कर वरिणत किया है वह तथैव प्रकारेण कठिन है। समस्त बुद्धिमानों में कौन इसे नहीं जानता ? अर्थात् सभी विज्ञ जन भली प्रकार जानते हैं ।। ५३ ।। पर विचायते चार चारित्रेयं भवस्थितिः । यथा यथा कृतं कष्टं प्रतिभाति तथा तथा ।। ५४ ॥ परन्तु विचार करने पर प्रतीत होता है कि संसार स्थिति का ज्यों ज्यों सम्यक् प्रकार से स्वरूप चिन्तन किया जाता है तो इसके कष्टों के समक्ष त्यों-त्यों निर्मल चारित्र प्रतिभासित होता जाता है। १६० ]

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