Book Title: Jindutta Charit
Author(s): Gunbhadrasuri, Tonkwala, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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प्रायं खण्डेऽपि संप्राप्ते चंबादे तन्न लभ्यते । सुजाति: सुकुलं सर्व सुकुलं सर्व शरीर परिपूर्णता ।। ६५ ॥
भाग्यवश श्रायंखण्ड में जन्म लिया भी तो वहाँ उत्तम शुद्ध सुजाति, सुकुल, सुवंश नहीं प्राप्त हुआ । यही नहीं शरीर के प्रङ्ग भी परिपूर्ण नहीं मिले। कभी विकलाङ्ग और कभी हीनाङ्ग हुआ जिससे पूजा दानादि की योग्यता ही नहीं हुयी ।। ६५ ।।
विपतयः ।
कुल जात्यादि संपत्तौ गर्भावेव शतशः सन्ति योगोन्द्र लंघितास्ताः कथञ्चन ।। ६६ ॥
तत्रापि मुग्ध बुद्धीनां बाल्यं यौवनमङ्गिनाम् । काम ग्रह ग्रहीतानां वार्द्धक्थ विकलात्मनाम् ॥ ६७ ॥
है योगीन्द्र ! किसी प्रकार कोई पुण्य योग्य से सज्जातित्वादि मिला भी तो गर्भवास में हो सैकड़ों विपत्तियाँ आ गईं। किसी तरह उन्हें पार कर जन्म भी हुआ तो हे देव वाल्यावस्था में मुग्ध बुद्धि प्रज्ञानी रहा, यौवनावस्था में विषय-भोगों के नशे में डूबा रहा-काम पिशाच से ग्रसित हो धर्म-कर्म हीन रहा । वृद्धावस्था में तो इन्द्रियाँ शिथिल हो गई । शक्ति विकल हुयी । क्या करता ? ।। ६६-६७ ।।
अनिष्टाभीष्ट संयोग वियोगं धन प्राजन्म रोग सूयस्त्वं पर
हीनता । किङ्करला सदा ॥ ६८ ॥
कभी अनिष्ट पदार्थों के संयोग से व्याकुल रहा था तो कभी इष्ट वस्तुमों के वियोग में झुलसता रहा। कभी निर्धनता से पराभवों का दास बन कष्ट सहा तो कभी ग्राजन्म दुःसाध्य रोगों का दास बना रहा। बार-बार पर की दासता का दुःख सहा । नौकर-चाकर होकर अनेकों दुःख सहे ।। ६८ ।।
संकथा |
इत्येवं दु.ख खिज्ञानां नराणां सुख मस्तकोपान्त विश्रान्त यमाहोना सुदुर्लभा ।। ६६ ।।
इस प्रकार नाना दुःखों से व्याकी इस मानव पर्याय की भी कथा क्या कही जा सकती है ? पैर से शिर तक विश्रान्त मानव को सुख सुदुर्लभ है । प्रर्थात् जन्म मरण के दुःखों का पार नहीं है ॥ ६६ ॥
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