Book Title: Jindutta Charit
Author(s): Gunbhadrasuri, Tonkwala, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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जानास्येव भवान वस पूर्वकम मूवार धोः । तपस्थति यथा तातोन्यस्य स्वसर्व मात्मजे ॥ १० ॥ असोऽहं त्वयिविन्यस्याधिपत्यमिदमादतम् । विधामि तपः पुत्र विषेषा स्व प्रहस्थता ।। ८१॥
हे वत्स ! तुम उदार बुद्धि वाले हो, हमारी परम्परा के अनुसार जैसे मेरे पिता तपस्वी हुए उसी प्रकार मैं भी अब तप धारण करने को उद्यमी हुआ हूँ। उन्होंने अपना भार मुझे दिया अब मैं तुम्हें अपना उत्तराधिकार देता हूँ। तुम प्राधिपत्य स्वीकार करो। मैं निर्मल तपश्चरण धारण करता हूँ। हे पुत्र ! तुम्हें गृहस्थ धर्म स्वीकार करना चाहिए ।। ८०-८१॥
प्रारमबत पालये रेतान सर्ववयानु जन्मनः । प्रकृती व समस्ता स्वं विरक्ता जातु मा कक्षाः ।। २ ॥
अपने सभी भाइयों को अपने मान पालन ना | कानी उपेक्षा भाव नहीं करना । अपने स्वभाव में निरन्तर दया रखना कभी भी क्रुद्ध नहीं होना ।। ८२ ।।।
परित्यज्य समस्तानि कार्याणि च विशेषतः । कर्म षम्य स्वयं घर कुर्याः स्वार्थ हित: सदा ।। ६३ ।।
हे भद्र ! समस्त कार्यों को छोड़कर विशेषत: स्व आत्म कल्याणकारी धर्म कार्यों को प्रथम स्वयं सम्पादन करना । सदा स्वार्य चिन्तन करना ।। ८३ ॥
ततस्तात मुवाचाऽसौ वक्त मेवं न युज्यते । यतो भुक्ता खया सम्पत् मातेव मम सर्वथा ।। ८४ ।।
इस प्रकार पिता के प्रादेश और उपदेश को सुनकर ज्येष्ठ पुत्र सुदत्त कहने लगा "हे पिताजी. आप यह क्या कह रहे हैं ? जिस सम्पत्ति को मापने भोगा है वह मेरे लिए माता समान है। भला मैं उसे कसे भोग सकता हूँ ? अर्थात् मुझे भोगना उचित नहीं। अभिप्राय यह है कि मैं भो दीक्षा धारण करूंगा" || ८४ ।।
शास्ति तातः सुतं श्रेयः श्रुति रेषा हुतान्यथा।
त्वयामोह समच्छन्न मार्ग दर्शयता मम ।। ८५ ॥ १६६ ]