Book Title: Jindutta Charit
Author(s): Gunbhadrasuri, Tonkwala, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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हुमा ग्रहण करना होगा । वह भी एक ही स्थान पर स्थिर होकर और दिन में एक ही बार करना होता है ।। ४४॥
इति भूल गुणा छार मनोन शिक्षा : त्रिकाल योग सेवाझा नियमाश्चोतरे परा: ।। ४५ ।।
मात्र शरीर स्थिति निमित्त ही साधु भोजन-पाहार लेते हैं। इस प्रकार ये साधु के संक्षेप में २८ मुल गुणों का वर्णन किया । त्रिकाल योग, सेवा प्रादि उत्तर गुण अनेक हैं ॥ ४५ ॥
दुःसहाः सर्वतः सन्ति प्रसूताश्च परीषहाः । ध्यानाध्ययन कर्मारिए कतव्यानि निरन्तरम ।। ४६॥
निरन्तर ध्यान और अध्ययन करना, असहनीय दुर्धर परीषहों का सहना महा कठिन है । चारों ओर परिषहों से उत्पन्न दुःखों से भरा है साधु जीवन ॥ ४६ ।।
तत्रात्मानं कयं क्षोप्तु सर्वदा सुख लालितं । शानुवन्ति महा चकुवन्ति बुद्ध कोमलाङ्गा भवादृशाः ॥४७ ।। पूमा श्रीमज्जिनेन्द्राणां वानं सर्वाङ्गि तर्पकम् । विवेकश्चेशो भद्र तपोय ते किमुच्यते ।। ४८ ॥
हे महा बुद्धिमन ! सर्वदा सुख में पले हुए तुम्हारे जैसा कोमलाङ्गी भला किस प्रकार अपने को उन दुःखों में डाल सकेगा-सहन करने में समर्थ हो सकेगा? अर्थात् इस दुर्गम पथ पर चलना तुम जैसे सुकुमार को सम्भव नहीं। इसलिए आप गृहस्थ धर्म का ही पालन करो। श्री मज्जिनेन्द्र भगवान की पूजा करना, सर्वाङ्गों को तृप्त कारक शुद्ध एवं प्रासुक आहार दान देना यही प्राप से विवेकी को उचित है। हे भद्र ! तप धारण करना अन्य मागं है, उसके विषय में क्या कहें ॥ ४७-४८ ॥
स्वर्गापवर्ग सौल्यस्य पारंपर्येण कारणम् । गाहस्थ्यमेव ययुक्त पालितु प्रिय दर्शनम् ।। ४६ ॥ गार्हस्थ धर्म भी परम्परा से मोक्ष सुख का कारण है। इसलिए