Book Title: Jindutta Charit
Author(s): Gunbhadrasuri, Tonkwala, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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बालुका कवल भोक्त' पातु ज्वाला हविर्भुजः । बन्धु गंष बहो वोभ्यां तरोतु मकरालयम् ॥ ३३ ॥ मेरूस्तोलयितु सङ्ग धारायां खलु लीलया। शक्यं संचरितु मातु प्राप्तुं पारं विहायसः ।। ३४ ।। न तु नंग्नेय्य दीक्षायाः सन्मुखं क्षणमप्यहो। भयितु भावीयत्तत्र कस्टमेष समन्ततः ।। ३५ ।।
हेमनीषि : हा काय द्वारा भोजन करना, भयंकर अग्नि ज्वाला का पान करना, तीक्ष्ण पवन से उद्वेलित समुद्र को बाहनों से तैरता, मेरू पर्वत का तोलना, पृथ्वी का मापना, प्राकाश का पार पाना कदाचित लीलामात्र में सम्भव हो सकता है परन्तु जिन दीक्षा-निग्रंथावस्था धारण कर क्षणभर भी टिकना महान दुष्कर है, इसके समक्ष चारों ओर भयङ्कर कष्ट ही कष्ट हैं ।। ३३, ३४, ३५ ।।
क्षुधादि च सथास्पड माग्न्यमङ्गोपसापकम। धर्तव्यं विधुतोदाम मनो मल्ल विभितम् ॥ ३६॥
क्षुधादि परीषहों का सहना, अत्यन्त मङ्गों को तापदायक नग्नत्व धारण करना मन रूपी विस्तृत मल्ल को वश करना चाहिए ॥ ३६ ।।
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मनसापि न यः शक्यः पुसा चिन्तयितुं स च । महाबत महाभारो पत्तं व्यो जीवितायधि ।। ३७ ।।
यह महानत महान है, महा गम्भीर है, जो मनुष्य मन से भी इसका चिन्तन करने में भी समर्थ नहीं हो सकता फिर यावज्जीवन धारण करना महा दुर्लभ है ।। ३७ ।।।
स्वच्छन्दं स्पन्दनं नव शृङ्खलाभिरिवा भितः । एकाभिस्ता प संसेक्ष्या सदर समितयो ध्रुवम् ॥ ३८ ॥
पांचों समितियां चारों मोर शृखला के समान वेस्टित करने वाली हैं । स्वच्छंदता से एक श्वास भी जीव नहीं ले सकता। अर्थात् जोवन के प्रवाह पांचों समितियों के मध्य से ही चलना चाहिए। सभी का सदा सेवन करना चाहिए ।। ३८ ॥
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