Book Title: Jindutta Charit
Author(s): Gunbhadrasuri, Tonkwala, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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क्योंकि ज्ञान शून्य होने से उन्हें चारों ओर से संसार दाह पीड़ित करती रहती है । पाप प्रात्म ज्ञानी हैं, ज्ञानाम्बु से ही दाह शान्त होती है ॥२७॥
भावि भूतं भवद्वस्तु तबस्तीह न भूतले । ज्ञाने तव नयत् स्वामिन् करस्थामलकापते ॥ २८ ॥
भत, भविष्य और वर्तमान कालीन ऐसी कोई वस्तु नहीं है जो हाथ की हथेली पर रक्खे आंवले की भाँति प्रापके ज्ञान में नहीं झलकती हो। अर्थात् सम्पूर्ण वस्तुओं के पाप ज्ञाता हैं ।। २८ ॥
भ्राम्यतां नाय जीवानामस्मिन् संसार कानने । सम्परमार्गोप देष्टान्यो भयतो स्ति न कश्चन ।। २६॥
हे नाथ ! इस भयंकर संसार रूपी अटवी में भटकते हुए जीवों को सम्यग उपदेश देने वाला अापके सिवाय अन्य कोई भी नहीं है ॥ २६ ॥
शरणश्च त्वमेवासि सवा दुर्गति पाततः । अस्यतामस्तु ते नाथ प्रसावो मम दीक्षया ।। ३० ॥
हे नाथ ! पाप ही दुर्गति पतन से बचाने वाले हैं। पाप ही एक मात्र शरण हैं । सदा रक्षक हैं। मैं संसार त्रस्त हूँ | मुझ दुखिया पर प्रसन्न होइये । मुझे निरिग दीक्षा प्रदान कर अनुग्रहीत कीजिये ।। ३० ।।
स निशम्य बच्चस्तस्य प्रोवाचेति यतीश्वरः । भव्य चूडामणे सूक्त मुक्त किन्तु परं श्रृणु ॥ ३१ ॥
इस प्रकार वैराग्यपूर्ण वचन सुनकर करूणा निधान गुरुवर कहने लगे "हे भव्य चूडामणे" ! बापने यथार्थ प्रश्न किया है तो भी मैं कुछ कहता हूँ अवहित होकर सुनो ।। ३१ ।।
स्वादशां सुकुमारा सपोनामैव सुन्दरम् । न जासु सहते जाति कुसुमं हिम वर्षणम् ॥ ३२ ।।
हे भद्र ! तुम्हारे जैसे सुकुमारों को इतना कठोर तप शोभनीय नहीं होगा । क्योंकि जाति पुष्प कभी भी हिम वर्षा को सहन नहीं कर सकता । अर्थात् तुम जाति पुष्प सदश सुकुमार हो मला प्रचण्ड हिमपात समान तप किस प्रकार सह सकोगे ? ॥ ३२ ॥
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