Book Title: Jindutta Charit
Author(s): Gunbhadrasuri, Tonkwala, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti

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Page 216
________________ किन्तु यह मूढ़ प्राणी, प्रभाद, मद, मोह, अज्ञान और मात्सर्यादि से अभिभूत हुप्रा निरन्तर उन्हीं का सेवन करता है प्रात्मा की चिन्ता नहीं करता । प्रात्म चेतना पाना ही नहीं चाहता ।। १७ ।। न माता न पिता नैव सुहृदः स्निग्ध मुद्धयः । तथा प्रेम करा नगा निस्पृहा, य तयो यथा ।।१८॥ संसार में जिस प्रकार निस्पृह यति जन-वीतरागी साधु पात्म हित करने वाले यथार्थ हित हैं, उस प्रकार माता, पिता, मित्र, बन्ध-बान्धव कोई नहीं हैं । ये सब बाह्य में स्नेह बद्ध दिखलाई पड़ते हैं । भोगों के साथी हैं प्रात्म-कल्याण के नहीं ।। १५ ।। जिन शासन मुद्दिश्य दीयते किम पीहयत् । क्रियते कृत कृत्यत्वं तेनेवास्ति विसंशयम् ।। १६ ।। इस समय इन्होंने जिन शासन का सारभूत कुछ उपदेश किया है। वह अल्प है तो भी मुझे कृतकृत्य कर दिया। मेरे संशय को नष्ट किया ।। १६ ।। अधुना विकला सर्वा सामग्री मम बत्तते। परोत्यज्य बहिर्भाव विवधामि ततो हितम् ॥२०॥ इस समय अविकल रूप से समस्त सामग्री मेरे सामने उपस्थित है। अतः अब समस्त बाह्य भावों का परित्याग कर अात्महित में प्रवत्त होता है। अर्थात् ज्ञान वैराग्य सम्पन्न हो सकल संयम धारण करना चाहिए ॥ २० ॥ तथाहायं महा मोह हुताशनशमनाम्बदः । प्रस्माकमेव पुण्येन समायान्मुनि पुङ्गवः ॥ २१ ॥ क्योंकि मोह रूपी भयंकर अग्नि के लिए शमन करने को ये शान्ति जल से भरे हुए सघन मेघ हैं । हमारे पुण्योदय से ही ये महामुनि पुङ्गव यहाँ पधारे हैं ॥ २१ ॥ अर्जरी कुरुते धापि न शरीर मिदं भरा। माफमन्ती महा वेगा व्या त्येव च कुटोरकम् ।। २२ ॥ १८४ ]

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