Book Title: Jindutta Charit
Author(s): Gunbhadrasuri, Tonkwala, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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की साधन सम्पदा तुम्हारे ही पूर्वाजित भाग्य का फल है अन्य का नहीं ॥ ११४ ॥
प्रशस्येति गता स्तास्तं स्व लय मुदिता स्तराम् । बुभुजे प्रत्यहं कृत्वातिथीनां सं प्रतीक्षणात् ॥ ११५॥
तुम्हारे घर से वे चारों कन्याएँ भी मुदित हो अपने-अपने घर चली गई और प्रतिदिन सत्पात्र की प्रतीक्षा कर ही भोजन करने लगीं। अर्थात् प्रतिदिन द्वाराप्रेक्षण करतीं। आहार बेला के अनन्तर ही भोजन करती ।। ११५ ।।
यतीश गुग भावितः सहज सौम्यता सङ्गतो। वसन्नीति विहायि ते रसिक चित्त वृत्तिस्तदा । जगाममृति गोचरं सुचिर कालतो वाणिजो। निरन्तर मिमास्तथा समनु भूय सौख्यं मृताः ॥ ११६ ॥
वह वणिक् यतीश्वर के गुणों की अनुचिन्तना करता, अपने सहज भावों को उनकी सौम्यता से संङ्गत करता । इस प्रकार रसिक चित्तवृत्ति वह घर में रहने लगा। पुनः सुचिर काल बाद उनके गुणों का रसिक हो मृत्यु को प्राप्त हमा। निरन्तर वह वरिण और बे चारों कन्याएँ सोल्यानुभव कर सम्यक मरण को प्राप्त हुए।। ११६ ॥
इस प्रकार श्री भगवद् गुणभद्राचार्य विरचित श्री जिनदत्त चरित्र का प्राध्या सर्ग समाप्त हुआ।
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