Book Title: Jindutta Charit
Author(s): Gunbhadrasuri, Tonkwala, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti

View full book text
Previous | Next

Page 208
________________ श्राक्रामन्ति विपुण्यस्य पादपद्येनं मन्दिरम् । यतयो आयते कस्य प्राङ्गणे वा सुर द्रुमः ।। २५ ।। पुण्यहीनों का मन्दिर (घर) श्रेष्ठ यतियों के चरण कमलों से प्रान्त नहीं होता । किस पापी के प्रांगण में कल्पवृक्ष प्रायेगा ? नहीं आ सकता ।। ६५ ।। परिस्यज्य वितर्कये । कञ्चनापि यतीशस्य लाभे चिन्तामणे रिव ।। ६६ ॥ दुष्यात हेतुमस्य ܪ अथवा चिन्तामणि समान इस प्रकार के मुनीश्वर के विषय में इस प्रकार की तर्करणा नहीं करना चाहिए। ये महान पुण्य के हेतु हैं । महा पुण्यों को छोड़कर इन तर्कों से क्या प्रयोजन ? ठीक है इनका लाभ चिन्तामरिण समान दुर्लभ है तो भी ।। ६६ ।। तथापि सावधानोस्मि मा कदाचित्तागमः । व्यवसाय वशात् पुंसां जायते विपुलं फलम् ।। ६७ ।। मैं इस विषय में सावधान रहें क्योंकि मनुष्य को पुरुषार्थवश प्रचिन्त्य वस्तुयों की प्राप्ति भी सम्भव हो जाती है । पुरुषार्थी को अपने सफल उद्योग से विपुल फल प्राप्त हो जाता है ॥ ६७ ॥ विभावयेति प्रसन्नात्मा धौत वस्त्रोत्तरीयकः । मार्ग मध्येषयंस्तस्य तस्थौ द्वारे स्व सद्मनः ॥ ६८ ॥ इस प्रकार विचार कर उसने स्नानादि कर शुद्ध स्वच्छ सफेद वस्त्र धारण किये । वह अति प्रसन्नात्मा अपने द्वार पर द्वारापेक्षण को खड़ा हो गया। चारों ओर मार्ग अन्वेषण करने लगा । किघर से मुनिवर श्रा जाये | हम ॥ प्रथा सौ प्रेरित स्तस्य पुण्यं रिव मेवापक्रमात् कामन्तुच्च नोच यथा मुनिः । गृहाबलीः ॥ ६६ ॥ मानों इसके तीव्र पुण्योदय से प्रेरित हुए मुनिराज ईर्यापथ शुद्धि पूर्वक दन से चर्यार्थ निकले। वे मुनि क्रमशः यमीर-गरीब का भेद न कर अपने क्रमशः पर्यटन करते आये ।। ६६ ।। १७६ ]

Loading...

Page Navigation
1 ... 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232