Book Title: Jindutta Charit
Author(s): Gunbhadrasuri, Tonkwala, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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आज किस भाग्यशाली पुण्यवान का घर इन श्री मुनि को चरण धूलि से पवित्र होगा । ये कल्याण स्वरूप यतिनाथ किस पर कृपा करेंगें, किसे अपनी चरण रज से कल्याण का पात्र बनाएँगें ।। ६० ।।
उत्तमोत्तम भोगानां भाजनं जायतां जनः । कथं न तत्र यत्रामो विद्यन्ते पात्र सत्तमाः ॥ ६१ ॥
जिसके यहाँ इस प्रकार के उत्तम पात्र प्राते हैं वह मनुष्य उत्तमोत्तम भोगों का पात्र भला क्यों नहीं होगा ? अवश्य ही होगा। मुनि दान से आहार दान से समस्त भोग अनायास प्राप्त हो जाते हैं ।। ६१ ।।
अत्यल्पेनापि दत्तेन पात्र स्येवं विषस्य हि । तन्नास्ति प्राप्यते यस वाञ्छितं पर जन्मनि ।। ६२ ।।
ऐसे उत्तम पात्र को अत्यन्त अल्प भी आहार दान जो देता है, उसे संसार में कोई ऐसा पदार्थ नहीं जो इच्छा करने पर प्राप्त न हों। सभी कुछ प्राप्त होता है । इसी भव में नहीं परभव में भी उत्तमोत्तम भोगोपभोग सामग्री प्राप्त होती है ।। ६२ ।
दर्शनेनैव पापानि नश्यतन्त्य तस्य रवे रिय ।
तमांसि कथ्यते कि वा यदि दानादि सङ्गमः ॥ ६३ ॥
इन पुण्य मूर्ति के दर्शन मात्र से ही पाप समूह नष्ट हो जाते हैं । जिस प्रकार रवि के उदय होते ही रात्रिजन्य घोर अन्धकार नष्ट हो जाता है । उसी प्रकार प्रशुभ कर्म इनके दर्शन से विलीन हो जाते हैं फिर यदि दानादि का संयोग प्राप्त हो जाय तो कहना ही क्या ? ।। ६३ ।।
मादृशां मन्द भाग्यानां विलीयन्ते मनोरथाः । सम्पूर्णा मनस्येव तरङ्गा इव वारिधेः ॥ ६४ ॥
मेरे समान मन्द भागी के मनोरथ तो मन ही मन उठ कर विलीन हो जायेंगे। जिस प्रकार कि विशाल सागर में उत्पन्न घनेकों लहरें उठउठ कर उसी में घुल-मिल जाती हैं। क्या मेरे मनोरथ पूर्ण होंगे ? वे तो अधूरे ही हैं ॥ ६४ ॥
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