Book Title: Jindutta Charit
Author(s): Gunbhadrasuri, Tonkwala, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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वह मार्ग में जा रहा था। एक विशाल वटवृक्ष के नीचे पहुंचा । वहाँ पर एक योगिराज विराजमान थे । वे त्रिकाल योग से सम्पन्न थे श्रर्थात् ग्रीष्मावकाश योग, वर्षा योग और शौत योग धारण करने वाले थे । गरमी में भीषण धूप में विशाल उन्नत पर्वत की चोटियों पर ध्यान करते, वर्षाकाल में वृक्षों के नीचे ग्रात्म-चिन्तन करते और शरदकाल में चौराहे या खुले आकाश में धैर्य रूप कम्बल धारण कर श्रात्म-साधना करने वाले थे । समस्त जीवों के हित में सतत उद्यत थे । ८० ॥
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महारामाधिवासोऽपि नि: कामो मान वर्जितः । भाजन सर्व मानानां स द्वेषो द्वेष शून्यधीः ॥ ८१ ॥
वे अपनी आत्म रूपी वाटिका में निवास करते, निष्काम, मान रहित, सबके द्वारा माननीय-सम्मान भाजन, द्वेष विहीन अर्थात् द्वेष बुद्धि से शून्य थं ॥ ८१ ॥
उद्यतो बन्ध विध्वंसे गुप्ति विलय संयुतः । नितान्तं शान्त रूपोपि सवा समिति भासुरः ।। ८२ ।।
जटिल कर्मबन्ध के विध्वंस करने में उद्यत, तीन गुप्तियों के धारक नितान्त शान्त स्वरूप एवं निरन्तर सदैव पञ्च समितियों से शोभायमान, तेज पुञ्ज थे ।। ८२ ।।
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मुरजादि विधि व्रात कृशतायात विग्रहः । पञ्चेन्द्रिय मनोदुष्ट सम्यग् विहित निग्रहः ॥ ८३ ॥ मासोपवास मास्थाय मिरुद्ध सकलेन्द्रियः । पर्यङ्कासन संस्थानो ध्यायत् सहज मात्मनः ॥ ८४ ॥
मुरज, कनकावली, रत्नावली, सिंह निष्क्रिडित, मुरजावली प्रादि उपवासों से उनका शरीर अत्यन्त कृश क्षीण हो गया था । पाँचों इन्द्रियों और दुष्ट मन को सम्यक् प्रकार वश कर लिया था। समस्त इन्द्रियों का निरोध कर निश्चल वे एक मास का उपवास लेकर पर्यङ्कासन से स्थित सहज-शुद्ध श्रात्मा का ध्यान करते हुए विराजे ये ।। ८३-८४ ।
विमलामिधः । मानसः ।। ८५ ।।
दुष्टोऽयुष्ट समस्तार्थो मुनीन्द्रो प्ररणनाम ततस्तस्थ पादौ मुक्ति
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