Book Title: Jindutta Charit
Author(s): Gunbhadrasuri, Tonkwala, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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उसके समाप्त करते ही, कथानक को सुनकर विमलामती विहंस कर बोली, महो भद्र ! यह कथा आपने कहाँ से किस प्रकार ज्ञात की है ? आपकी कथा अद्भुत रसीली है। बहुत सुन्दर है ।। ७२ ।।
पत्रान्तरे समुत्थाप्य नोतोऽसौ यथा राज कुले वेला वर्त्तते
स्थगनेस्ततः । गम्यतामिति ॥ ७३ ॥
पुनः क्या हुआ ? पूछते ही उसके साथियों ने कहा चलिए अब राज दरवार में जाने का समय है, भाइये । पुनः कल प्राकर सुनाना । सत्य है चलो कह कर वह भी उनके साथ मा गया ।। ७३ ।।
तथैवेत्य
द्वितीयेऽहि स्ववार्त्ता साववीरिता ।
भारम्य गमनं द्वीपे यावत् पातः पयोनिषौ ।। ७४ ।।
द्वितीय दिन पुनः प्रथम दिवस की भाँति वेषधारी कुमार श्री जिनालय में पधारा साथी - मण्डली भी साथ ही थी। क्रमशः प्रथम श्री वीतराग अरहंत प्रभु का दर्शन, पूजन, स्तवनादि किया। पुन: उस जिनभवन में उपस्थित तीनों सखियों के सान्निध्य में उपस्थित हुआ एवं कथानक प्रारम्भ किया। सिंहल द्वीप के लिए प्रस्थान करने के समय से कथा प्रारम्भ की और राजकुमारी के विवाहादि का वर्णन करते-करते अपने समुद्र में गिरने तक की कथा सुनायी। बस, अब इतना ही सुनाऊँगा कह चुप हो गया ।। ७४ ॥
ततस्तूष्ां स्थिते तत्र स्मित्वा श्रीमतीर ब्रबीत् । कि ततो जमि भो भन्न सरसेयं कथा तब ।। ७५ ॥
उसके शान्त - धूप होते ही द्वितीय रमणी श्रीमती विहंस उठी और बोली हे गुरणश ! श्राप की कथा बड़ी ही रसीली है, यह तो बतलाइये कि झागे क्या हुआ ? सागर में गिर जाने पर जिनदत कुमार का क्या हुआ ? ।। ७५ ।।
कि याति तव भुवस्था परायत्ता वयं पुनः ।
बस सेव सरो यामो राम मन्दिर मुत्सुकाः ।। ७६ ।।
अरे ! श्राप तो सुनने वाली हैं, सुनने में प्रापका क्या जाता है ? पर मैं तो पराधीन हूँ राजाज्ञानुसार चलना है। राजमन्दिर में जाने का
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