Book Title: Jindutta Charit
Author(s): Gunbhadrasuri, Tonkwala, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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वणिपति अपने युगल श्वसुरों से जाने की प्राजा ली । पुनः उन्हें एवं पुखासियों की भी अनुमोदना ले उनको प्रागे कर प्रस्थान किया। अपनी पलियों, अनल्प विभूति, अमूल्य सम्पत्ति के साथ स्वयं बनाये अनुपम मनोहर गान तैयार किया और प्रारूढ़ हो वेग से प्रयाण किया ॥ ४३ ॥
प्राप्तस्ततः क्षणतयेव पुरं प्रवद्धा। मन्बेन माधव जन समं समेत्य ।। तासेन कल्पित समुत्सव माकुलेन । स्वानन्द पूर्ण हृवयेन गृहं स निन्ये ।। ४४ ।।
अल्प क्षणों में ही वह अपने दिव्य विमान से जननी-जन्मभूमि में जा पहुँचा । उस समय पुर की अद्भुत शोभा देखते ही बनती थी। चारों ओर मानन्दोत्सव हो रहा था। बन्ध बान्धव यानन्द से उसकी प्रागवानी को सजधज कर उपस्थित थे। पिता के द्वारा पुत्र के आगमन में किये गये नाना नृत्य-गानादि से व्याकोणं था । सभी हर्ष और उल्लास से भरे थे। इस प्रकार महा महोत्सव पूर्वक अपने तातादि पारिवारिक जनों के साथ अभिनन्दित कुमार ने उनके साथ ही अपने घर में प्रवेश किया ।। ४४॥
इस प्रकार श्री भगवद् गुणभद्राचार्यकृत श्री जिनदत्त चरित्र में सातवाँ सर्ग समाप्त हुआ।
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