Book Title: Jindutta Charit
Author(s): Gunbhadrasuri, Tonkwala, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti

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Page 185
________________ हे नाथ ! अब बिना विलम्ब के शीघ्र यहाँ से प्रस्थान करिये । पिता के समीप जाने का उद्यम करना योग्य है। क्योंकि स्वजनों के बिना यहाँ रहना क्या श्रेष्ठ है ? नहीं। सम्पत्ति का भोग स्वजनों के साथ भोगना सज्जन पुरुषों का लक्षण है ।। ४० ।। तातस्तवाभि नवं चन्द्र समान मूर्ति । तो वियोग भरतो भयसोति दुःखात् ।। मातुश्च बास्प जल विप्लुत कज्जलाया । गण्डस्थली मलिनता विजही न जातु ॥४१॥ हे कुमार ! आपके पिता मापके वियोग भार से अत्यन्त दुःखी हैं, उस संताप से उनकी कान्ति क्षीण होकर द्वितीया के मयत समान रह गयी है। प्रापकी पूज्या मातेश्वरी का हाल बेहाल हो रहा है, वह अहर्निश शोकाश्रु बहाती है। उस प्रवाह से नेत्रों का कज्जल घुलकर उसके कपोलों को कृष्ण बनाये हुए है अर्थात् उसके गण्डस्थल कालिमा को कभी छोड़ते ही नहीं हैं ।। ४१ ।। प्रन्योपि माधव ननः सकलो बियोग । दुःखेन दुःस्थ हृदयोन्दुदिनं तवास्ते ॥ तिष्ठन्ति सांप्रतममी भवदीय पत्र । सन्दर्शनेक रसिका श्च सवेहि शोध ॥ ४२ ।। । इतना ही नहीं अन्य सभी बन्धु-बांधव प्रापके विरहानल से दग्ध हो रहे हैं। सभी दुःखित हैं। सबका हृदय आकुलित है और सब हर क्षण प्रापके मुख चन्द्र के दर्शन को पलक पावडे बिछाये बैठे हैं। प्रतः अब माप शीघ्र ही प्राइये। अर्थात् अपने पितृ गृह को प्रस्थान कीजिये ।। ४२ ॥ श्रुत्वेति तस्य वचनं नितरां समुत्कः । से प्रच्छय भूप वरिणगीश पुर: सरं सः ।। लोकं चचाल दयिता सहितो बलेना। कल्पेन कल्पित मनोहर दिव्य यान: ॥४३॥ इस प्रकार प्रागन्तुकों के वचन सुन कर कुमार अपने घर जाने को अधीर हो उठा। वह अत्यन्त उत्सुक हो गया। उसी समय नृपति और [ १५५

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