Book Title: Jindutta Charit
Author(s): Gunbhadrasuri, Tonkwala, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti

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Page 189
________________ कुमार का चरित्र-शौर्य, धैर्य, वीर्य पराक्रमादि का यश चारों ओर विस्तृत हो गया। नृपति चन्द्रशेखर ने भी विश्रुति सुनी, सुनकर विशेष रूप से उसका आदर सम्मान-सत्कार-पूजा की। अन्य सामन्तादि ने भी यथायोग्य उसका सम्मान किया । ... इत्थमानन्द मुत्पाद्य तातादीना मुवाच सः । यथा क्षणं स्ववृत्तान्त मशेष प्रश्नपूर्वकम् ॥११॥ इस प्रकार अपने पिता-मातादि परिवार को मानन्द उत्पन्न कराता यथा समय प्रश्नादि पूर्वक अपने वृत्तान्त-पर्यटन की घटनाओं को भी सुनाता ॥ ११ ॥ यान्ति तत्र दिनान्यस्य सुरस्येव सुरालये। पञ्चेन्द्रिय सुखं सम्यक् ममानस्य निरन्तरम् ।। १२ ।। आमोद-प्रमोद पूर्वक इसका समय स्वर्ग में देवों के समान पञ्चेन्द्रियों के विषय सुखों को भोगने में व्यतीत होने लगा। निरन्तर सुखों में लीन रहने लगा ॥ १२ ॥ उद्यान बोधिकाशाल शोभितानि पदे पदे । अकारयश्च चित्राणि मदिराणि जिनेशिनाम् ॥ १३ ॥ उसने रमणीय उद्यान, खातिका, वापिका, कोट आदि पद-पद पर बनवाये । अनेक नाना प्रकार की कलाओं से समन्धित जिमालयों का निर्माण कराया ।। १३ ।। सारं श्रावक धर्मस्य विततार यथा विधि । पतुर्विधस्य संघस्य दानमेष चतुर्विधम् ॥ १४ ।। श्रावक धर्म का प्रमुख सारभूत, चतुर्विध संघ को चार प्रकार का दान का विस्तार किया । मुनि, यति, ऋषि और अनगार इन चार प्रकार के निर्ग्रन्थ मुनीश्वरों के समूह को चतुर्विध संघ कहते हैं अथवा मुनि, प्रायिका, श्रावक-श्राविका को भी चतुर्विध संघ कहते हैं। खाद्य, स्वाद्य, लेह्य और पेय यह चार प्रकार का आहार है, इसे देना-माहार दान, शास्त्रादि-ज्ञान दान, औषध दान और अभय दान यह चार प्रकार का दान है। दिगम्बर साधुनों को वितरित दान ही दान कहलाता है । [ १५०

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