Book Title: Jindutta Charit
Author(s): Gunbhadrasuri, Tonkwala, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti

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Page 198
________________ महाभाग सुना देशोधन्तिः स्व पि ॥ ५५ ।। प्रस्त्यत्र भरत क्षेत्रे देशोषन्तिः स्वशोभया। सस्पृहा मयं लोकस्य कृता येन सुरा अपि ॥ ५५ ।। जम्बूद्वीप में भरत क्षेत्र नाम का रमणीय क्षेत्र है। इसमें अवन्ति नाम का अतिशय मनोहर देश है । इस देश ने अपनी शोभा से सुरों को भी लालायित कर दिया । मृत्युलोक में रहते हुए भी देवों को स्पर्धा करने वाली इसकी श्री थी ॥ ५५ ॥ पतन्ति यत्र शालीनां केदारेषु मधु यताः । मलिनोभय पक्षा हि केदारेषु परान्मुखा: ।। ५६ ॥ इस देश में शालि-धान के पके खेतों की क्यारियों में मधु भ्रमर समूह गिरते हैं । उभय पक्ष को मलिन करने वाली परदारा का सेवन करने से शालीन पुरुष सतत पराड मुख रहते हैं । अर्थात् सभी सदाचारी हैं। शील संयम के पालक हैं ॥ ५६ ।। चक्राङ्किता विराजन्ते राज हंस निषेविताः । मागषु यत्र पनाढया किरणां वा जलाशयाः ।। ५७ ॥ यहाँ के मार्गों में यत्र, तत्र-सर्वत्र रमणीय मधुर जल प्रपूरित सरोवर हैं । वे राज हंसों से सेवित हैं। चक्रवाल पक्षियों द्वारा गुंजित हैं । सुन्दर सुविकसित कमलों से परिपूर्ण हैं । इस प्रकार सरोवरों की मनुठी शोभा है ।। ५७ ।। सरसा सदसङ्कारा व्यक्त वर्ण व्यवस्थितिः । प्रसादौ जोयुता यत्र कथेव जनता कवे: ।। ५८ ।। सर्वोत्तम कवि को कविता, जिसमें सरसता, सुन्दर अलंकार छटर, स्पाट सरल शब्द संयोजना, प्रसाद प्रौर प्रोज गुरण युक्त होती है, उन्हीं कवियों की कथा के समान यहाँ की जनता थी । अर्थात् श्रेष्ठतम कवियों द्वारा यहाँ की जनता का वर्णन किया जाता था ।। ५८ ॥ तत्रास्त्युज्जयिनी नाम नगरी नर सत्तमः । यथेवं राजते हार लतयेव पराङ्गमा ।। ५६ ।। हे नरोत्तम ! इस देश में उज्जयिनी नाम की सुन्दर नगरी है । यह सुन्दर रमणी के अनोखे हार की भांति शोभित होती है ।। ५६ ।। १६८ ]

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