Book Title: Jindutta Charit
Author(s): Gunbhadrasuri, Tonkwala, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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से चकित कर रहा था। अर्थात् सभी की दृष्टि इनके सौन्दर्यपान में लगी हुयी थी । स्वरूप सम्पदा से समीपस्थ नारी जन को महा विस्मय का केन्द्र बन गईं ये चारों ।। ५ ।।
संभाषिताश्च सर्वेऽपि बान्धवाः स्निग्ध बुद्धयः । सस्त्रीका स्तन्मुखाम्भोज लीन नेत्रालि मालिकाः ॥ ६ ॥
सर्व बान्धव जन सस्नेह बुद्धि से उसके गुण, बल, पौरुष से नाना प्रकार सम्भावित कल्पनाओं में मुग्ध थे। जिनदत्त को उसकी अनुपम सुन्दर स्त्रियों सहित देख सभी जन उसके मुखपंकज के निहारने में निनिमेष पसक थे। ऐसा प्रतीत होता था मानों मुख रूपी अरविन्द पर ये नेत्र रूपी भ्रमरों की पंक्तिमाला क्रीड़ा कर रही है-गूंज रही है ।। ६ ।।
गत्वा ततो जिनेन्माणां सर्वेष्वायत नेब्बसे । भक्तया पूजादिकं कृत्वा चकारोत्सव मावृतः ॥ ७ ॥
सर्व प्रकार लौकिक सस्क्रियायों के बाद ये सन श्री जिनेन्द्र भगवान के प्रायतन-मन्दिर में गये। सभी जिनालयों में अत्यन्त भक्ति से पूजन, स्तवन, भक्ति प्रादि करके महा उत्सव मनाया। जिनभक्ति के मनन्तर गुरु वन्दना को चला ॥ ७ ॥
प्रणमाम गुरुगरच पाच पानि भक्तितः । कृश्य कृत्य मिवात्मानं मेने संभाषिताच तैः ॥ ८ ॥
जिनालयस्थ स्थित श्री वीतराग-मुनिवृन्द के पादपद्यों में भक्ति से नमस्कार किया। उनके साथ घामिक संलाप कर अपने को कृतकृत्य माना । ठीक ही है सद्विवेकी जन अपने कर्तव्य में सतत जाग्रत रहते हैं। वे धर्म पुरुषार्थ को अग्रकर अन्य क्रियामों में प्रवतं होते हैं ।। ८ ।।
प्रागत्य च ततो दायि दीनानाथायिनां धनम् । यथा काम कुमारेण मारेणेव स मूत्तिना |६ ॥
वहाँ से पाकर दीन, अनाथ, गरीबों को यथेच्छ दान दिया। कामदेव की मूर्ति स्वरूप कुमार ने समस्त प्रथिजनों को संतुष्ट किया ।।६।।
तथास्य परितं श्रुत्वा पूजितोऽसौ विशेषतः ।
चन्द्र शेखर राजेन जन रम्येष सादरम ।। १० ।। १५८ ]