Book Title: Jindutta Charit
Author(s): Gunbhadrasuri, Tonkwala, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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पल्लवित-पुष्पित करने में समर्थ हूँ। हे नरेश्वर शुष्क वृक्ष भी विकसित कर सकता हूँ अपने विनोद से मनुष्यों की क्या कथा? ।। ६७ ।।
ततोऽसौ प्रेषितो रामा स्वल्प लोकैः समं मुदा । जगामसौपि संकल्प संकेतः स्वजनैः सह ॥१८॥
राजा यह सुनकर प्रसन्न हुमा घोर अपने मन्तों गय उसे जिनालय में भेज दिया। वह भी अपने स्वजनों द्वारा संकेतिक संकल्पानुसार गया ।। ६८ ॥
जिना प्रणिपस्यान्ते स तासो समुपाविशत् । कृत गोताविक: प्रोचे वयस्यैरिति साबरम् ।। ६६ ।।
सर्व प्रथम विधिवत श्री जिनेन्द्र भगवान की पूजा की, स्तुति एवं नमस्कार कर उन तीनों पति विहीनानों के पास प्राया। उसने सुमधुर स्वर में गीतादि सुनाये। वे प्रानन्द के साथ भाश्चयोत्पादक भी थे। तदनन्तर उन सखियों ने सादर निवेदन किया ॥ ६ ॥
यथा कथानकं किञ्चित कथ्यता कौतुका वहम् । धूयतां सावधान भॊः कथयामि स्व चेष्टितम् ।। ७०॥
हे भद्र ! कौतूहल उत्पादक कोई भी थोड़ा कथानक सुनाइये । गंघवंदत्त ने भी स्वीकृत करते हुए कहा, भो ! भव्यात्मन् ! माप सावधानी पूर्वक मुनिये में स्वेच्छानुसार सुन्दर सरस कथानक कहता हूँ ॥ ७० ॥
वसन्तादि पुरादेत्य चम्पोद्यान मुपेयुषा। यावत् कान्ता परित्याग स्तावत्तेन तिवेवितम् ॥ ७१ ॥
अब उसने मनोहर अपना स्वयं का चरित्र सुनाना प्रारम्भ किया, वसंतादिपुर से प्रारम्भ कर चम्पानगरी के उद्यान में प्राकर अपनी पत्नी विमला का त्याग किया था, अर्थात् विमलादेवी को लता कुञ में छोडकर भदृश्य हो चला गया था वहाँ तक का उपाख्यान सुनाकर मौन हो गया ।। ७१ ॥
सवाकोलपत स्मित्वा विमलादि मतिस्तदा । कि जातमिति भोः हि सुष्टरम्या कमा तव ।। ७२ ।।