Book Title: Jindutta Charit
Author(s): Gunbhadrasuri, Tonkwala, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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विशुद्धो भय पक्षाय कन्या स्मै दीयतां ततः। किम्चासाध्येष्वयं देव प्रतिच्छन्व स्तवापरः ॥ ५ ॥
इसलिए हे नराधिप ! पाप निशंक होकर इसे उभय कुल विशुद्ध समझिये और अवश्य कन्या रत्न प्रदान कर अपने यश को बढ़ाइये। हम अधिक क्या कहें, इससे बढ़कर पापको अन्य और कौन वर कन्या के योग्य मिलेगा। इसके समान यही है ।। ५॥
प्रतीतिरस्ति चेन्नाथ प्रच्छयता मयमेव हि। वचः श्रुत्वेति राज्ञा सौ प्रष्ठ एवं समन्त्रिशा ॥ ६ ॥
हे नाथ ! हमें तो पूर्ण प्रतीति है फिर भी यदि आप चाहें तो इसे ही पूछिये, आपकी शंका निवृत्य हो जायेगी। इस प्रकार मन्त्रियों के बचन सुनकर राजा ने मन्त्रियों सहित उस कुमार से प्रश्न किया ।। ६॥
विज्ञानाकृति सस्थाढय गुणज्ञातो बरोमया । प्रच्छन्नः कोऽपि भर त्वं नूनं नर शिरोमणिः ॥ ७ ॥
हे भद्र, आपके विज्ञान फला, कौशल, धर्य, वीर्य, पराक्रम, प्राकृति आदि गुणों द्वारा मैंने सम्यक् प्रकार जात कर लिया है कि पाप प्रच्छन्न रूप में कोई महानात्मा है, निश्चय ही नर शिरोमरिण हैं, नर रत्न हैं ॥७॥
प्रसोच बद सन्देहं हर स्वं प्रकटी कुरु । तथाप्यास्मानामत्येव मुक्त: स्मित्वा बजरूप सः ॥ ८ ॥
तथापि हे भद्र, हम पर प्रसन्न होइये, हमारे सन्देह को दूर करिये । अपने को प्रकट कीजिये । इस प्रकार राजा के द्वारा प्रार्थना करने पर भी अपने को उसी प्राकृति में रखकर मुस्कुराता हुआ कुमार कहने लगा ।। ८॥
वसन्तादि पुरावासि जीवदेव पणिक पतेः । जिमवत्त इति ख्यातः सूनुरस्मि मरेश्वर ।। ६॥
हे राजन् ! मेरा जीवन चरित्र-कुल वंश जानना चाहते हैं तो सुनिये-बसन्तादिपुर है । उस नगर में जीव देव नामक नरोत्तम वरिण पति है । उस श्रेष्ठी का मैं पुत्र हूँ। मेरा नाम है जिनदत्त कुमार । हे नरोत्तम, यह है मेरा वंश ॥ ६ ॥
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