Book Title: Jindutta Charit
Author(s): Gunbhadrasuri, Tonkwala, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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प्राक्रन्वन्त्या स्तत स्तस्याः स्थितेन जिन सधमि । कुमार प्रेयसी युग्मेना श्रावि रूवितध्वनिः ॥ ४६ ॥
इस प्रकार वह अनेक प्रकार से विलाप करने लगी, उसकी रुदन ध्वनि से वन गूँज उठा । श्राक्रन्दन का राव जिनालय में भी पहुँच गया। उस वन उद्यान में स्थित जिनालय में ही पूर्व बिछुड़ी जिनदत्त की दोनों पत्नियाँ स्थित थीं उन्होंने इस करूण विलाप को सुन्दा और अधीर हो उसके पास जाने को उद्यत हुई ।। ४६ ।।
निर्गताभ्यां ततस्त्याभ्यां स जवाभ्यां विलोकिता । निकटे वन देवींव तदुद्याने ब्रुमान्तरे ॥ ५० ॥
शीघ्र ही वे दोनों मन्दिर जी से निकल कर उन द्रुम समूह-लता भवन में पहुँची जहाँ वनदेवी के समान सुन्दरी नर वनिता विलाप कर रही थी और रुदन का कारण पूछने लगीं ।। ५० ।।
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प्राश्वासिता च सा ताभ्यां बहुधा जिन मन्दिरम् । शेष विमानादिविभिस्ततः ।। ५१ ॥
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उन दोनों ने उसे प्राश्वासन दिया, सान्त्वना देकर जिन भवन में आने को कहा। उसने भी विमानादि समस्त सामग्री की विधि विशेष से एकत्रित कर चलने की तैयारी की। तीनों जिनेन्द्र प्रभु के मन्दिर जी आ गई ।। ५१ ।।
प्रसझ यवना तत्र त्यक्तार्त्ता भक्ति तत्परा | जिनाधीशं नमस्कृत्य तदनेन्ते समुपाविशत् ।। ५२ ।।
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जिन भक्ति में परायण उसने प्रतिध्यान का त्याग किया और प्रसन्न वित्त से श्री जिनेन्द्र प्रभु की भक्ति एवं स्तुति की, नमस्कार कर उनके पास श्राकर बैठ गई ।। ५२ ।।
उदाजहार प्रष्टा च तयो: स्व चरितं पुनः । निशम्यान्योन्य मालोक्य स्मितं ताभ्यां सविस्मयम् ॥ ५३ ॥
उन दोनों सतियों ने उसका चरित्र पूछा । उसने भी अपने पति वृत्तान्त यथार्थ रूप में कह सुनाया। अर्थात् समुद्र सैर कर धाना,
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