Book Title: Jindutta Charit
Author(s): Gunbhadrasuri, Tonkwala, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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दुःख से पिञ्जरित कर दिया। मैं युक्ति विहीन वियोग में डूबी क्या
करू ।। ४२-४३ ॥
कि मया मदना तङ्कादन्य जन्मानि विनिता । सपत्नी वनिता वान्या भर्तु सङ्गम लालसा ॥ ४४ ॥
क्या पूर्व जन्म में मेरे द्वारा मदन से प्राक्रान्त हो किसी सपत्नी को विघ्न उपस्थित किया गया या अन्य किसी बनिता के भोग में अन्तराय डाला गया । अर्थात् पति-संगम को लालसा युक्त किसी नारी के संयोग में मैंने अवश्य विघ्न डाला होगा उसीका फल यह पति वियोग दुःख मुभी प्राप्त हुआ है || ४४ ॥
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श्रगालित जलं पेयं कन्द मूलादि जिनस्य पूजनं निन्दां करोमि पूर्व
भक्षणम् । जन्मिनि ॥ ४५ ॥
अथवा बिना छना जल पिया होगा या कन्दमूल भक्षण किया है अथवा पिछले भव में जिनेन्द्र प्रभु की पूजा की निन्दा की है ।। ४५ ।।
तस्येदं फलभायात मलध्य मति दुःसहम् । किमतो हं विधास्यामि भग्नाशा निर्जने वने ॥ ४६ ॥
उसो का यह अलंघ्य और दुस्सह फल यहाँ मेरे सामने उपस्थित हुना है । हे प्रभो ! निराश हो इस निर्जन वन में मैं अब क्या करूंगी ? ।। ४६ ।।
वल्लभा नाथ चेन्नाहं मुञ्च मां कुल मन्दिरे । एककां तत्र यान्तों माम यशो हन्ति दुर्वचम् ॥ ४७ ॥
हे प्राण वल्लभ ! मुझे अनाथ कर एकाकी मत छोड़िये यदि एकाकी मैं अपने पिता के घर जाऊँ तो अवश्य मेरे यश का नाश होगा, मैं दुर्वचनों द्वारा निन्दा की पात्र बनूंगी ।। ४७ ।।
महं
सापराधाप दीयतां वर्शमं
लघु । कारूण्यं श्रव नु ते फान्त मामेवं यद्युपेक्षसे ॥ ४८ ॥
हे नाथ ! यदि आप मुझे अपराधिनी समझ रहे हैं तो भी एक बार शीघ्र दर्शन दीजिये | क्या आपको तनिक भी दया नहीं जो इस प्रकार मेरी उपेक्षा कर रहे हैं ? ।। ४८ ।।
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