Book Title: Jindutta Charit
Author(s): Gunbhadrasuri, Tonkwala, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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देखिये, मालती पुष्प के समान यह त्रियोग हिम का कार्य कर रहा है । जिस प्रकार शीतल वायु से हिम प्रपात होने से मालती कुसुम म्लानमुरझाया हो जाता है उसी प्रकार आपके वियोग से मेरे शरीर की कान्ति क्षीण हो गई है, मुख सूख गया है ।। ३८ ॥
रागान्धया कया था कि हुत: खग कन्यया। केनाऽपि वारिणा नाय नर रत्नं कटाक्षितम् ॥ ३६ ।।
क्या किसी रागान्ध विद्याधर कन्या द्वारा प्रापका हरण किया गया है अथ श हे नाथ पाप जैसे मर रत्न को किसी ने अपने कटाक्ष चारणों का शिकार बना लिया है ।। ३९ ॥
स्वप्नेनापि न मे निष्ट शिष्टं बान्धव सचितम् । कमौरष्ट मिवं जातं दस दुःख परं परम् ।। ४० ।।
हे प्रिय, मैंने स्वप्न में भी यह नहीं सोचा। मेरे श्रेष्ठ बान्धवों ने भी कभी इस प्रकार की सूचना नहीं पायो । न जाने किस कर्म की यह दुःख परम्परा में मुझे लाकर डाला है । क्यों मुझे यह विपत्ति दी है ।। ४० ।।
अथवास्ति न ते दोषः शेषोऽपि शुभ वर्शन । ममैत्र पूर्व कर्माणि फलन्स्येवं सविस्तरम् ॥ ४१ ।।
अथवा हे शुभ दर्शने ! इसमें आपका तनिक भी दोष नहीं है मेरा हो पूर्व जन्म कृत अशुभ कर्म इस समय विस्तार पूर्वक अतिशय रूप में प्रति फलित हुप्रा है ॥ ४१ ।।
राज हंसो मया कान्ता सन्निधौ कुकुमादिभिः । प्रायः पिजरितः किन्तु क्रीडा पपसर: स्थितः ॥ ४२ ।। प्रातरेवाथ कान्तायाः सङ्गमाभि मुखो मया। रथाङ्ग बिहगश्चके वियुक्तो युक्ति होनया ॥ ४३ ।।
मनोहर क्रीडारूपी पा सरोवर के राजहंस, माप प्रायः प्रातःकाल मेरे कुंकुम द्वारा पिञ्जरित दिखलाई पड़ते थे, अर्थात् कुंकुम मण्डित मेरे मुख रूपी पम सरोवर में क्रीड़ा करने से पाप उस कुंकुम से रंग जाते और प्रात:काल लाल कमल की शोभा धारण कर मेरे प्रानन्द के हेतू होते थे, किन्तु आज चक्रवाक् के वियोग से वियुक्त चकवी समान मुझे
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