Book Title: Jindutta Charit
Author(s): Gunbhadrasuri, Tonkwala, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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शोभा निराली ही थी । चञ्चल सुन्दर ध्वजा फहरा रही थी, से वायु ताडित किंकिणियां- लटकते घुंघरू समूह रून-भुत बज रहे थे । सुन्दर विशाल मोतियों की अनेकों मालाएँ लटक रहीं थीं । इन्द्र विमान को भी तिरस्कृत करने वाला शोभनीय था ॥ २६ ॥
वरं विमान मारुतः पुरोधान नदो नगान् । प्रियाया दर्शयन्नेष यावद्याति विहाय सा ॥ ३० ॥
ऐसे उत्तम, सुदृढ़ विमान में सवार हो अपने पुर की ओर प्रस्थान किया । विमान चलने लगा मार्ग में प्राप्त नदी, नद, नाले, नगरी, पुर, उद्यान, पत आदि की शोभा को अपनी प्रिया को दिखाता हुआ आकाश मार्ग से चला जा रहा था ॥ ३० ॥
चम्पापुरो प्रवेशेहि जाता रात्रिस्ततः प्रिया । वक्ता तेन यथातिष्ठ जाग्रतो त्वं स्वपस्यहम् ॥ ३१ ॥
सायंकाल होते-होते विमान ने चम्पापुर में प्रवेश किया। शीघ्र ही रजनितम प्रसारित हो गया । विमान उतरा । सुन्दर उपवन में डेरा लगाया | मनोहर उपवन के लसाकुञ्ज में शैया बनायी । कुमार ने अपनी कोमलाङ्गी सुकुमारी प्रिया से कहा - "हे कान्ते ! मैं सोता हूँ तुम जागती रहना" ।। ३१ ।।
समुत्थाय शयित्वासौ तामवादी दिति प्रिये । स्वपिहि त्वं गता शङ्का तिष्ठाभ्येष पुरस्तव ।। ३२ ।।
इस प्रकार प्रिय पत्नी को बैठा कर स्वयं सो गया । श्रानन्द से यथा समय शयन कर उठा और अपनी भार्या से बोला, "प्रिय अब तुम निशंकनिर्भय होकर सो जाम्रो, मैं यहीं तुम्हारे सामने बैठ जाता हूँ ।। ३२ ।
एवमस्रिवति संज्ञप्य सा सुष्वाप सुनिर्भरम् । प्रसुप्तां तां ततो ज्ञात्वा जिनदत स्तिरोदधे ।। ३३ ।।
"आपकी जैसी आज्ञा, वैसा ही करती हूँ" ऐसा कह कर, वह के भोली बाला निर्भय हो प्रानन्द के साथ सो गईं। तत्काल शीतल वायु मधुर थपेड़ों से उसे गहरी निद्रादेवी ने श्रा दबाया। जिनदत्त ने पूर्ण स्वस्थ निद्रा में सोई ज्ञात कर अपनी विद्या से अपने को तिरोधान कर
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