Book Title: Jindutta Charit
Author(s): Gunbhadrasuri, Tonkwala, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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विनाशक महामोह मल्ल का मंथन करने वाले निर्मल सुतप को स्वीकार करेंगी ॥ १०५॥
प्रत्रान्तरे समाज्ञाय वार्ता तां वत्सलः सताम् । समाजगाम सत्रव श्रेष्ठी विमल संश कः ।। १०६ ।।
इसी बीच में विमल श्रेष्ठी को ज्ञात हुआ कि कोई शील शिरोमणि प्रज्ञात रमणी जिनालय में पधारी है। वह भी उसकी पुत्री के समान पति वियोग से दुःखित है। वह शीघ्र ही जिन मन्दिर में प्राया। उसका हृदय परम वात्सल्य से प्राप्लावित था। सहर्ष चैत्यालय में प्रवेश किया ।। १०६ ।।
ततः स्तुत्या जिनाषीशं निविष्टो निकटे तया। चक्रस्तुते समुत्थाय प्रणामं तस्य सावरम् ॥ १०७ ।।
उस जिनेन्दभक्त विमल श्रेष्ठी वे जिनेन्द्र प्रभु का दर्शन कर स्तुति की। नमस्कारादि कर पुत्री के निकट पाया और यथास्थान उसके पास बंठ गये । पुत्री ने भी उस प्रागत सखि के साथ उठकर पिता को उचित प्रादर से प्रणामादि किया ।। १०७ ॥
अभिनन्ध ततो प्राक्षीत कुशलं नप देहणाम् । स लज्जा लोकयामास भगिन्या वदनं च सा ।। १० ।।
राजकुमारी का अभिनन्दन कर श्रेष्ठी ने उसकी कुशलता पूछी। वह भी लज्जा से अपनी बहिन (विमला) का मुख देखने लगी ।।१०८ ॥
जाताकता च सा तातं बुद्ध त त त विस्तरम् । चकार मस्तक पुत्वा चिन्तयामास सोप्ययः ।। १०६ ।।
उसके अभिप्रायानुसार विमला ने बताया कि "ये मेरे पिताजी हैं" तथा अपने पिता को भी उस विपदापन्न राजकुमारी का वृत्तान्त सुनाया जिसे सुनकर सेठ शोकाभिभूत हो शिर धुनने लगा एवं विचारने लगा ॥ १०६ ।।
क्येदं त्रिभवनानन्वि वयो" स्याः शुभ सूचकम् । सर्वस्वं स्मर राजस्य · दशा धेयं कब दारूणा ॥ ११०॥
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