Book Title: Jindutta Charit
Author(s): Gunbhadrasuri, Tonkwala, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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जाती है। जिस प्रकार हिमपात होने से कमलिनी म्लान हो जाती है, रवि वियोग से कमल पुरझा जाता है उसी प्रकार वियोगिनी पतिवियोग के संताप रूप दाह में शुष्क हो जाती है। हृदय में संतप्त होती रहती है ।। ६५ ।।
संजात रस भंडास्ता बहिर्वर्ण मनोहराः । मलकार विनिमुक्ताः सुनत्ता अपि शङ्किताः ।। ६६ ॥
वह वाह्य में मनोहर रहते हुए भी रस विहीन हो जाती है। अलङ्कार रहित होने पर भी, उत्तम चारित्र पालने पर भी लोगों के बारा शंकित दृष्टि से देखी आती है। अर्थात् पातिव्रत पालती हुयी भी शंका का विषय बन जाती है ।। ६६ ॥
जीवन्ति क्लेशतो नित्यं प्रसावादि गुणोझिता:। निरीक्षितापशवास्तु कृतयः कुकवे रिव ॥ ७ ॥
वह प्रसन्नतादि गुणों से विहीन होकर बड़ी कठिनता से क्लेशयुक्त जीवन को बिताती है । जो देखता है वही नाना अपशब्दों से सम्बोधित करता है जैसे कुकवियों की कृतियाँ-कविताएँ निन्दा की विषय बन जाती है ॥ ६७ ॥
हवमेव परं सर्व सम्पदा मास्पवं ध्र वम । शाशने यजिनेन्त्राणां भक्तिरेव शुभानने ।। ६८ ॥
हे सुमुखि ! इसलिए इस समय सर्वोत्तम यही है कि सम्पूर्ण सम्पदामों की स्थानभूत जिनेन्द्र भक्ति करो। निश्चय ही जिन शाशन भक्ति ही श्रेष्ठतम उपाय है क्लेश-संतापों को शान्ति के लिए ॥ ६ ॥
साधारणे च सर्वेषो सुख दु.खे तनुभृताम् । प्रतश्चित्त समाधानं कृत्वा भुक्ष्व पुराजितम् ।। ६६ ।।
सामान्य से जिनेन्द्र भगवान की भक्ति सभी मानवों को सुख दुःखादि सभी अवस्थामों में करनी चाहिए । अतः हे बुद्धिमति ! अब स्थिर चित्त हो समता से धैर्य पूर्वक पूर्वाजित कर्मों का भोग करो ॥ ६ ॥
इत्थं सम्बोधिता वादीत स्व वृत्तान्त मशेषतः। वयोवेष बाचेष्टाः सापि पप्रज्छसावरं ।। १००॥
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