Book Title: Jindutta Charit
Author(s): Gunbhadrasuri, Tonkwala, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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( षष्ठम्:--सर्ग ) . अथासो जिनक्त्तोऽपि निमज्य जयतो जले। गत पोतं प्रदेशं तम द्राक्षी स्थितस्ततः ॥ १ ॥
राजकुमारी अपने पुण्यानुसार, अपनी बुद्धिमत्ता से पुरुषार्थ धैर्य और धर्म का पालम्बन ले यथास्थान जा पहुँची। इधर जिनदत्त अगाध सागर में जा पड़ा । उसका क्या हाल हुमा यह ज्ञात करना आवश्यक है।
सेठ द्वारा धकेला जिनदत्त कुमार शीघ्र ही सागर को उत्ताल तरंगों में डूबने लगा। उसने देखा तट से यान जहाज जा चुके हैं । उसने किसी प्रकार दृष्टि उठायी और तट प्रदेश को सूना देखा ।। १ ।।
जायते महतां चित्त कोमलं नवनीतवत् । सम्पत्ती कठिनं चेदं विपत्तावश्म सन्निभम् ।। २ ।।
महा पुरुषों का मन अद्भुत होता है वह जिस प्रकार सम्पत्ति काल में सुख में मक्खन सा कोमल होता है उसी प्रकार विपत्ति में वन्न सा कठोर भी जाता है ।। २ ।।
संभाव्येति पयोराशि भुजाभ्यां भय बज्जितम् । तरोतु प्रारमेतेन किमसाध्यं मनस्विनाम् ॥ ३ ॥
इसी प्रकार महामना जिनदत्त ने पयोराशि असीम है देखा तो भी धेर्य पूर्वक निर्भय होकर दोनों हाथों से पार करना प्रारम्भ किया-तेरते लगा । ठीक ही है मनस्वियों के लिए संसार में क्या दुर्लभ है ? कुछ भी नहीं ॥ ३ ॥
प्राप्तञ्च तरता तेन पुरस्तात् फलकं तथा । मित्र मालम्बनं तेन गाढमालिङ्गितं च तत् ।। ४ ।।
कुछ क्षण तैरने के बाद उसने अपने सामने एक लकड़ी के फलक को प्राते हुए देखा, शीघ्र ही उछल कर उसे सच्चे मित्र के समान पकड़ कर छाती से चिपका लिया। जोर से पकड लिया ॥ ४ ॥
पादाभ्यां वापि कटचासो स्पृष्ठ बंशेन व क्वचित । उदरेण गता शङ्क तरति स्म निराकुलम् ॥ ५ ॥
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