Book Title: Jindutta Charit
Author(s): Gunbhadrasuri, Tonkwala, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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प्रसीव
महा
श्रृण मद्वाक्यमपऊ मते । ययाति विजयार्द्धाद्रि दक्षिण श्रेणि मण्डले ।। १६ ।।
श्राप संतुष्ट होइये, प्रसन्न हो मेरे सारभूत, यथार्थ वचन सुनिये | हे महामते ! मैं जो कहता हूँ उसे श्रवरण करिये, "एक विजयार्द्ध पर्वत है उसकी दक्षिण श्रेणी में मण्डन स्वरूप राजधानी है ।। १६ ।।
अशोक श्रीः बगाषोशो रथनूपुर विजया कुक्षि संभूता श्रृंगारादि मतिः
पत्तने ।
सुताः ॥ १७ ॥
वहाँ रथनूपुर नाम का नगर है उसका राजा अशोक श्री है उसकी महादेवी विजया है। इसकी कुक्षि से प्रसूत श्रृंगारमती नामकी सुन्दर कन्या पुत्री है ॥ १७
तस्य सा सुकुमाराङ्गी प्राप्त यौवन विद्याधर कुमारेषु वरं नेच्छति
मण्डना । कञ्चन ।। १८ ।।
उस नृप की कुमारी इस समय पूर्ण यौवन को प्राप्त हो गई है, उसके अंग-अंग से लावण्य झलकता है, किन्तु वह किसी भी विद्याक्षर कुमार को वरन करना नहीं चाहती है अर्थात् विद्यावर राजाओं में से किसी के भी साथ विवाह करना नहीं चाहती ॥ १८ ॥
ज्योतिर्विदा समाविष्टं तदेवं यः पयोनिधौ । तरिष्यति भुजाभ्यां स वरीता तब बेहजाम् ।। १६ ।।
उसके पिता ने चिन्तित होकर श्रेष्ठ ज्योतिषियों से परामर्श किया। उन्होंने निर्णय दिया कि जो पुरुष भुजाओं से सागर को पार करेगा - तरेगा वही श्रापके कन्यारत्न का वर होगा ।। १६ ॥
तदर्थं प्रेषिता वा वां विद्याभू चक्रवत्तिना । वायुवेग महावेगौविद्याधर कुमार कौ ॥ २० ॥
इसी हेतु से उस विद्यावर चक्रवर्ती द्वारा हम दोनों को वायुवेग के समान गतिवाले समझ कर भेजा है। हम दोनों विद्याधर पुत्र हैं । महावेग से गमन करने में समर्थ है ।। २० ।
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