Book Title: Jindutta Charit
Author(s): Gunbhadrasuri, Tonkwala, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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प्रमादृशा सुमुह्यन्ति केवलं
विषयाशया ।
यथा मधुरया पूर्व मधु विग्धासि धारया ॥ ८६ ॥
हमारे समान प्रज्ञानी जीव इन विषयों में ही मुग्ध होते हैं। जिस प्रकार तलवार पर सहद-मधु लपेटने से वह मधुर हो जाती है पर चाटने वाले की जिह्वा च्छेदन कर उसे पीड़ित करती है तो भी विमूढ उसे ही चाटना चाहता है, उसी प्रकार हमारी भी दशा है ।। ८६ ।।
ववन्तीमिति तां दुःखभार भंगुर एवमाश्वासयामास विमलावि
मानसाम् । मतिस्तदा ॥ ८७ ॥
इस प्रकार दुःखाकुलित, विरह ताप से संतप्त हृदया वह कह रही थी । इसका मानस दुःखभार से क्षार-क्षार हो रहा था। उसकी इस दशा को देखकर विमलामति आदि ने प्राश्वासन दिया एवं तत्त्वबुद्धि पूर्वक समझाने लगी ।। ८७ ।।
यथा येरजितं पूर्व दुःखं वा यदि वा सुखम् । मिरोद्ध प्रसरस्तस्य शरपि न शक्यते ।। ८८ ।।
हे बहिन जीव जैसा शुभ या अशुभ कर्म उपार्जित करता है उसे तदनुसार सुख व दुःख प्राप्त होता है। विपाक काल में प्राप्त कर्म फल के प्रसार को रोकने में इन्द्र भी समर्थ नहीं हो सकता है | ८८ ॥
पूर्व कर्मानुसारेण स्नेह द्वेषौ च सुन्दरि । जायेते तौ च बद्ध से विन्ध्यमानो दिवानिशम् ॥ ८ ॥
हे सुन्दरी ! पूर्वाजित कर्मानुसार ही राग-द्वेष उत्पन्न होता है अर्थात् मित्र और शत्रु जीव को मिलते हैं। उसी प्रकार अहर्निश चिन्तवन करने से ये राग-द्वेष, मैत्री - शत्रुता बढ़ते हैं ।। ८६ ।।
क्षणात् सुखं क्षरणात् दुःखं क्षणाद्दासः क्षरणात्पतिः । प्रनिष्टाभोष्टयोः सङ्ग वियोगों च अस्तावपि ॥ ६० ॥
यह संसार स्वयं क्षणभंगुर है। इसमें प्राप्त समस्त पदार्थ प्रतिक्षण परिणमन शील हैं । इसीलिए एक क्षण में सुख माता है दूसरे ही समय दुःख र घमकता है, किसी क्षण में जीव राजा होता है तो वहीं कभी
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