Book Title: Jindutta Charit
Author(s): Gunbhadrasuri, Tonkwala, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
View full book text
________________
जिसके गले में सपं है, मस्तक पर-चूडा में चन्द्र लगा है उसे चन्द्रशेखर-महादेव कहा जाता है । उस नगरी में इसे भ्रमति करने वाला चन्द्रशेखर नाम का राजा हुना। वस्तुत: महादेव-शिवजो को भी प्रवहीलन करने वाला यह राजा यथा नाम तथा गुण संपन्न हुभा ॥२७॥
ननं निवेशिता कान्ति स्तनौ विधिनापरा। मध्यादिन्दोः कथं तप कलंक किरण तान्यया ॥२८॥
राजा की शरीर कान्ति विधाता ने अद्वितीय बनायी थी यही नहीं प्रत्येक प्राङ्गोपाङ्ग की रचना करने में मानों चन्द्रमा की समस्त कलात्रों का निचोड लेकर प्रयोग किया था अन्यथा चन्द्र के मध्य में स्थित कला यहाँ भी पा जाता ? किन्तु उस कलङ्क से चन्द्रशेखर नपति सर्वथा रहित था । अभिप्राय यह है कि चन्द्रमा तो कलंक सहित होता है परन्तु नृपति चंद्रशेखर निष्कलङ्क सौंदर्य सम्पन्न था ।। २८ ।।
बभब भुवने यस्य कोतिः कुन्देन्दु निर्मला । विगङ्गना यया रेजुः स हारलतिका इमः ॥२६॥
उस राजा की कीर्ति कुन्द पुष्प की सुवासना एवं निर्मल इन्दु-चन्द्र की चांदनी के समान निर्मल दिग्दिगन्त में व्याप्त थी । संसार में मात्र ज्याप्त ही नहीं थी अपितु दिशा रूपी वधुओं ने उसे अपने गले का सुन्दर हार बनाकर गले में धारण कर लिया था। जिससे वे सुशोभित हो रही पौं। अर्थात् कण्ठहार के समान राजा का यश दिशाओं ने धारण किया ।। २६॥
विच्छिन्न मण्डला भोगा विकला क्षण नाशिमी। यस्यारि संहति जतिा मूर्ति रिन्बो रिवाधिमा ॥३०॥
इस राजा का शत्रु समूह सर्वथा विच्छिन्न था, कहीं भी कोई समूह बना कर राजा के प्रति निन्दा मादि व्यवहार नहीं करते थे। शत्रु सेना स्वयं विकल चिन्न-भिन्न हो जाती, क्षणभर में युद्ध स्थल से भाग खड़ी होती । अभिप्राय यह है कि जिस प्रकार चन्द्र माकाश में भ्रमण करता है परन्तु इस भूपति का शत्रु सैन्यवल मूर्ति के समान स्थित हो गया। पर्थात् राजा के बल-पौरुष के समक्ष शत्रुगण मूर्तिवत् हो गये । कोई भी इसके आगे ठहर नहीं सकता था। देखते ही शत्रु हतप्रभ हो जाते थे ॥३०॥
& ]