Book Title: Jindutta Charit
Author(s): Gunbhadrasuri, Tonkwala, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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बिलापमिति कुर्वाणा सानीता पितुरन्तिकम् । सखो जनेन वाष्पांभः स्नापित स्तन मण्डलम् ॥ ६२ ॥
इस प्रकार विलाप करती हुयी को सखिजनों ने प्राश्वासन दिया, प्रांसूत्रों से सिंचित स्तन मण्डल को पोंछा और किसी प्रकार उसे रूदन करती हुयी को उसके पिता के पास ले गई ।। ६२ ॥
बासा निशम्य तां तात स्तामा श्वास्यायोवदः । धर्म वान रता पुत्रो तिष्ठाय जिनालये ॥६३ ॥
धर्मज्ञ, तत्त्वज्ञ पिता ने सर्व वार्ता सुनी । स्नेह से उसे समझाया, सावधान किया एवं जिनालय में ले जाकर जिनेन्द्र प्रभ के दर्शन करा साधु परिषद् में ले गया तथा कहा हे प्रिय पुत्रि ! तुम यहीं जिनालय में रहो एवं दान पूजा में मन लगायो ।। ६३ ।।
साद्धमार्याभि राभिः सखीभिः स्वजन ता। तावसिष्ठ सुते यावत्तदन्धेषण मारमे ।। ६४ ॥
हे पुत्री मैं तुम्हारे पति का पूर्ण तत्परता से अन्वेषण करता हूं। वह जब तक नहीं मिले तब तक तुम प्रायिका नासाजी के 17 में रहो, तुम्हारी सखियाँ साथ रहेंगी, परिजन भी रहेंगे ॥ १४ ॥
स्थापयामास तत्रतां सान्त्वयित्वा समुद्यताम् । दाने श्रुते जिनायां वैय्यावृत्ये योचिते ।। ६५ ।।
इस प्रकार सम्बुद्ध कर पुत्री को सेठ ने दान, पूजा, स्वाध्याय, वैयावृत्ति प्रादि यथोचित कार्य में संलग्न कर जिनालय में रख दिया । क्या आज के माता-पिता ऐसा करते हैं ? उन्हें शिक्षा लेना चाहिए ।। ६५ ।।
गवेषितश्च यत्नेन पक्षद्वय जनरयम् । सर्वतोऽपि च नालोकी ततस्तस्थे यथायथम ।। ६६ ।।
जवांई की खोज में चारों ओर अन्वेषक भेजे परन्तु सफलता नहीं मिली । दो पक्ष एक माह निकल गया सब वापिस लौट आये अपने-अपने स्थान पर ।। ६६ ।।
ठीक ही है पुरूषार्थ करना अपना कर्तव्य है फल कर्मानुसार प्राप्त होता है।
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