Book Title: Jindutta Charit
Author(s): Gunbhadrasuri, Tonkwala, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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करते हैं, शुद्ध भूमि पर शयन करते हैं, चनादि निर्जन प्रदेश में निवास करते हैं, सतत ध्यान और अध्ययन में बद्धचित रहते हैं ।। १०० ॥
सम्यक
येकरालंबनं संसारार्णव मज्मतां । जगतां जात रूपास्ते गुरवो गजगामिनि ।। १०१ ॥
जो संसार सागर में डूबते प्राणियों को सम्यक् करावलम्बन देते हैं, संसार में जातरूप धारो महा साधु हो सच्चे गुरु हैं । हे गजगामिनी । उन्हीं की उपासना करा, सेना-भक्ति करो ॥ १०१ ॥
काम क्रोध मदोन्माव मोहात्या विषयाधिकाः । यान्तो नयन्ति भक्तां स्तु गुरुवस्वेना पयेहि ।। १०२ ।।
इन श्री गुरुषों के पद कमलों में नमन करने से काम, क्रोध, मद, उन्माद, मोह, विषय मूर्च्छा आदि नष्ट हो जाते हैं। जो भक्तिपूर्वक परम सद्गुरुत्रों को उपासना करता है वह उन्हीं के समान, काम कोपादि से रहित हो गुरणशाली हो जाता है इसीलिए उन्हें "गुरु" इस सायंक नाम से सम्बोधित किया जाता है। कहा भी है जो शिष्यों के दोषों को निगल जाय-पत्रा जाय वह गुरु कहलाता है ॥ १०२ ॥
मनस्थिनि ।
sपि सौख्यानां भाजनं भविता सदा ॥ १०३ ॥
देव धर्म गुरुनित्थं मन्यमाना
लोक
हे मनस्विन ! जो इस प्रकार देव, धर्म और गुरु को यथार्थ समझता है, उन्हीं में भक्ति श्रद्धा रखता है वह इस लोक और परलोक दोनों ही लोकों में सदा समस्त सुखों का भाजन होता है ।। १०३ ।।
निबन्धनमिदं सर्व वृत्तानां दर्शनं प्रिये । विनतेन बिमूलः स्यात् समस्त नियमद्रुमः ॥
१०४ ॥
ये समस्त लक्षण जो तुम्हें कहे सम्यग्दशन के कारण हैं । हे प्रिये इस प्रकार को श्रद्धा बिना किये गये सकल यम नियम निर्मूल हैं । यम नियम पादप हैं तो सम्यक्त्व उसकी जड । जिस प्रकार जड के बिना वृक्ष का अस्तित्व संभव है उसी प्रकार सम्यग्दर्शन रहित ज्ञान-चारित्र निरर्थक हैं ।। १०४ ॥
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