Book Title: Jindutta Charit
Author(s): Gunbhadrasuri, Tonkwala, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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द्रौपद्याद्या महासत्याः विषयान्धेन केनापि
पवित्रोकृत ពន្ធ ត
भूतलाः ।
कृतमन्यथा ।। ४६
द्रौपदी आदि महासतियाँ थीं उनके शीलधर्म के प्रभाव से समस्त जगतित पावन हो गया, उन्होंने अपने निर्दोष पतिव्रत धर्म से भूमण्डल को मण्डित किया था । किन्हीं विषयान्ध पुरूषों ने इस प्रकार का विपरीत कथन किया है । महासती भला पञ्चभतरी कसे हो सकती है ? यह सर्वथा सत्य है ।। ४६ ।।
भारद्वाजादि दृष्टान्ताः प्रभा न हि भवावृषा दुराचाराः पुराध्यासन्न
ते । किंनराः ।। ४७ ।।
रही बात भारद्वाज आदि की ये भी कोई प्रमाणित नहीं हैं क्यों कि पहले भी आपके जैसे दुराचारी क्या नहीं थे ? ऐसे ही नरों में से यह भी होगा कोई || ४७ ॥
पोडशोऽपि न चाकृत्यं यत्किञ्चिदेव किं सिंहः
।
स्वयमेवागते त्यादि युक्त यदि सुभाषितम् । पारदारिक लोकस्य शिरच्छेदादिकं
कृतम् ।। ४८ ।।
आपने कहा कि स्वयं प्राये पुरुष का सेवन करना दोष युक्त नहीं यह भी किसी प्रकार से मान्य नहीं क्यों कि इसके विरोधी सुभाषित हैं कि परदार सेवी का शिरच्छेद किया जाना चाहिए। अन्य भी योग्य दण्ड देना उचित है ॥ ४८ ॥
कुरुते जातु सात्विकः । क्षषाक्षीखोपि खावति ।। ४६ ।।
हे तात् ! थाप सत्पुरुष है, सज्जन व्यथित-पीडित होने पर भी अनुचितकार्य को नहीं करता क्या कभी सिंह क्षुधा से क्षीण होने पर भी चाहे जो खाता है क्या ? नहीं ।। ४६ ।।
भिन्दन्ति हृवयं यस्य कटाक्षे रभिसारिका । तमी
पेक्ष मुञ्चन्ति लोक द्वितय सम्पदः ।। ५० ।।
जिस पुरुष का हृदय परस्त्री-व्यभिचारिणी के कटाक्ष वाणों से विद्ध होता है उसे उभय लोक की सम्पदा ईर्ष्या से त्याग देती है ।
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