Book Title: Jindutta Charit
Author(s): Gunbhadrasuri, Tonkwala, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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यदि स्त्री चाहती भी हो तो उसे भी नहीं चाहना पुरुष के लिए उत्तम है महावत समान है। न कि परस्त्री प्रादि को धारण करना ? प्रतः परनारी नरक दुःख का द्वार हे ॥ ५५ ।।
रामामम्बा मिवान्यस्य कचारमिव काञ्चनम् । पश्यन्ति ये जगत्तेषामशेष गाहते यशः ॥ ५६ ॥
जी महापुरुष पराई वनिता को न्याय के समान समझता है और पर धन-कञ्चन को कचार के समान देखता है, उसके शुभ्र निर्मल यश से संसार व्याप्त हो जाता है।॥ ५६ ।।
पाताल बन्ध भूलोपि मेरू: स्खलति कहिधित् । प्रारणात्ययेऽपि दुर्वत सतीनां न पुनमनः ।। ५७ ।।
पाताल के मूल-जड़ को कदाचित बांधा जा सकता है, मेरू पर्वत सम्भतः कदाच चलायमान हो जाये, किन्तु सतियों-साध्वियों का मन प्राणान्त होने पर भी दुवति-नीच कार्य में रत नहीं हो सकता ॥५७ ।।
नान्यं जातुनियेहं परिस्पज्य निजं पतिम् । चन्द्रमन्तरिते सूर्ये पश्यत्यपि न पगिनी ।। ५८ ।।
परम शीलवती नारी अपने पतिदेव को छोड़कर अन्य पुरुष का सेवन कभी नहीं कर सकती। क्या सूर्य से प्राच्छादित चन्द्रमा के होने पर भी कुमुदनी रवि का स्वागत करती है, प्रफुल्ल होती है क्या ? नहीं। सूर्योदय होने से चन्द्र तिरोहित हो जाता है उसके साथ ही कुमुदनी भी मुरझा जाती है । चन्द्रोदय होने पर ही विहँसती है । उसके प्रभाव में सूर्य से प्रीति नहीं करती।। ५८ ॥
शेष शोर्षभरिणमध्ये सिंहामा केसरस्छटा । केनाऽपि स्पृश्यते क्यापि सतीनां न पुनस्तनुः ॥ ५६ ॥
नाग के मस्तक में गरुडमरिण रहती है, सिंह के शरीर पर केशर छटा होती है ये किसी के द्वारा स्पर्शित नहीं होती अर्थात् क्या कभी किसी ने इनका स्पर्श किया है ? नहीं किया। उसी प्रकार सती महिला का शरीर पर पुरुष द्वारा कभी भी स्पर्शित नहीं हो सकता ।। ५६ ।।