Book Title: Jindutta Charit
Author(s): Gunbhadrasuri, Tonkwala, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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तुम्हारे वचनरूपी शीतल अमिय झरने के जल से अभिसिंचित होकर ही जीवन धारण कर सकंगा, किस प्रकार मेरा कामदाह शान्त हो सकेगा। किस प्रकार स्थिति धारण कर सकूँगा॥ ६९-७० ।।
एवं कृते ततः प्राप्तं वासरे गणीतैस्तदम् । यान पात्रं परिज्ञाय तया प्रोक्ताजना निमाः ।। ७१ ॥
इस प्रकार निर्णय कर एक-एक दिन गिन कर निकालने लगा, धीरे-धीरे यान सागर के तट पर प्रा पहुँचा। तटस्थ पाये जहाज को देखकर नृपसुता ने अपने समस्त परिकर को बुलाया और कहा ।। ७१ ॥
उदत्त्यास्म्यहम घंव तीर द्रम तलेतसः ।। स्थास्थामीति के वक्तव्यं श्रेष्ठिनो यदि प्रच्छति ।। ७२ ।।
मैं अभी पानी के बाहर तट पर स्थित वृक्षों के समूह तले निवास करती हूँ। यदि श्रेष्ठी पूछे तो उसे कह देना कि मैं लता गुल्मों में रहूँगी॥७२॥
अथ से सोतसावागर्दै अमुलीला माल । प्रादाय प्राभृतं श्रेष्ठो जगाम च नृपान्तिकम् ॥ ७३ ॥
यह सुनते ही सर्वजन सोत्साह प्रमोद से वहाँ उत्तर पड़े। पड़ाव । डाल दिया । उधर श्रेष्ठी भी प्राभूत-भेंट लेकर उस नगरी के नृपति के पास जाने को उद्यत हुमा ।। ७३ ।।
तस्यास्तु रक्षका बसा श्रेण्ठिना यान लीलया । अपाकुलास्ते भवन्सापि स्वं जग्राहाखिलं जनम् ।। ७४ ॥ समाशृत्य परिचारा स्नाम व्याजेन सा ततः। विनिर्गता लघु प्राप सार्थ चम्पापुरागतम् ॥ ७५ ॥
श्रेष्ठी ने उसे क्रीड़ार्थ साथी दिये एवं यानादि के संरक्षक दिये । सभी उसकी अवस्था से चिन्तित ५। उसी समय वह उन शेष लोगों से कहने लगी। माप यहीं विश्राम करें में स्नान करने जा रही हैं। इस प्रकार स्नान का बहाना कर वह दूर चली गई वे लोग भी आश्वस्त हो बैठ गये । बस, क्या था वह अवसर पाकर नगर में-चम्पापुरी में प्रविष्ट हो गई। ७४-७५ ।।