Book Title: Jindutta Charit
Author(s): Gunbhadrasuri, Tonkwala, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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इस समय मैं शीघ्र ही इस कामविह्वल को वञ्चना से वश करती हूँ । इस लुब्धक को ठगने में दोष नहीं। इसे आश्वासन देकर शान्त करना चाहिए। यदि निकट भविष्य में प्रिय पतिदेव का समागम मिल गया तो ठीक है अन्यथा तपोवन की शरण ग्रहण करूँगी प्रर्थात् प्राथिका व्रत धारण कर, जीवन साधना द्वारा इस स्त्रीपर्याय का ही उन्मूलन करूँगी ।। ३२ ।।
संभाव्येति तयाभारिण सूक्त
वज्र श्रृंखल तुल्यन्तु वाचा
मेतत्तवोदितम् । बन्धन मस्तिते ॥ ३३ ॥
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तो भी प्रथम इसे समझाती हूँ। इस प्रकार संभावना कर वह प्रार्तनाद करती बोली, आपकी सूक्तियाँ सत्य है तो भी मेरे लिए बज्रश्रृंखला की भांति बन्धन स्वरूप ही हैं अर्थात् प्रापके वचन मुझे वज्र की सांकल के समान पीड़ा कारक हैं। किन्तु तुम्हें भी ये पाप बन्धन में जकड़ने वाले हैं। पर नारी पर कुदृष्टि डालने पर संकट रूपी वज्रपात होता है ।। ३३ ।।
प्रवसुरोयं तवेद्युक्त
त्वस्पुत्रेण पुरो मम । प्रतोति तात तुझ्याय रन्तु मे जायते घृा ।। ३४ ।।
आप मेरे श्वसुर के समान हैं। भापके पुत्र ने मेरे सामने श्रापको पिता कहा था इस दृष्टि से मेरे भी पिता हो, पिता तुल्य आपके साथ रमण करने में मुझे घृणा होती है ।। ३४ ।।
प्रतिपन्नं न मुञ्चन्ति प्राण त्यागेऽपि सन्नशः । यथा सागर एवायं मर्यादां विजहाति किम् ॥
३५ ॥
सत्पुरुष प्राणन्तेपि न्याय नीति का श्रीचित्य का त्याग नहीं करते । क्या रत्नाकर कभी अपनी मर्यादा सीमा का उल्लंघन करता है ? ॥ ३५ ॥
स्वकुले विमले सम्यक् हेयायी विजानता । सम्पर्करण परस्त्रीणां कलङ्कः क्रियते
कथम् ॥ ३६ ॥
फिर आप अपने निर्मल कुल में प्रसूत हैं, सम्यक् प्रकार हेय और उपादेय के ज्ञाता हैं, अर्थात् क्या करने योग्य है और क्या नहीं इसे प्राप भलीभांति जानते हैं तो भी परनारी के सम्पर्क से उस उज्ज्वल कुल को क्यों कलङ्कित कर रहे हैं ? ।। ३६ ।।
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