Book Title: Jindutta Charit
Author(s): Gunbhadrasuri, Tonkwala, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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तनिशम्य मराधीश सुतया विधुतं शिरः । चिन्तितञ्च क्षतेनेन कोणः क्षारोति दुःसहः ।। २५ ॥
इस प्रकार उसे श्रेष्ठी-सार्थवाह ने अनेकों मधुर किन्तु कुत्सित वचनों से फुसलाने का असफल प्रयास किया । जिसे सुनते ही राजपुत्री का मन अधीर हो गया वह माथा धुनने लगी और सोचने लगी मोह इसने न केवल मुझे अत-विक्षत ही किया है, अपितु क्षार जल सींच कर दुस्सह पाया यातना पत्र में पाया है ।। २५ ।।
कृत्याकृत्यम विज्ञाय कामान्धेन कथं था। नीलोत्पलरलैः कष्टं कुकूलं किल कल्पितम् ॥ २६ ॥
कर्तव्याकर्तव्य विवेक शून्य इस कामान्ध दुराचारी ने व्यर्थ ही मुझे प्रापद ग्रस्त किया है। सुन्दर कोमल नीलकमल के पत्तों द्वारा कष्ट कारक कुकूल समान कष्ट कल्पित किया है । अर्थात् जो कुमुद जिनदत्त रूपी चन्द्र दर्शन से विकसित होते थे क्या उसके छप जाने पर प्रफुल्ल रह सकते हैं ? कभी नहीं। यह महा अविवेकी है । मैं कुमुदनी और मेरे प्रिय पतिदेव चन्द्र थे। भला उनके वियोग में यह मुझे सुखी करना चाहता है ये कैसे सम्भव हो सकता है ? नहीं हो सकता है ।। २६ ।।
जिनदत्त निशानाथं कुर्वतो मे तिरोहितम् । केन वा होपिशाचस्य मुखमेतस्य दृश्यते ।। २७ ।।
मेरे पतिदेव रूप राकापति (चन्द्र) को इस दुष्ट ते तिरोहित कर दिया, मेरे नयनों से दूर किया । किस प्रकार इस पिशाच का मुख देखें । प्रर्थात् यह साक्षात् पिशाच राक्षस प्रतीत हो रहा है ।। २७ ।।
अथवा सर्व पापानामहमेव निबन्धनम् । मा पासक्त चिसन यदनेन स माशित: ।। २८ ।।
अथवा न जाने वह किसके मुख का ग्रास बना होगा। पुनः वह विचार करती है इन समस्त दुष्कमो का हेतू-निमित्त मैं ही हूँ क्योंकि मेरे इस रूप लावण्य पर भासक्त होकर ही इसने मेरे प्राणनाथ का जीवन हरग किया है ।। २८ ।।
सायित्वा हि बिह्वां वत्त्वोत्फालं जलेथवा। प्रसि पुत्रिकया हत्वा किमारमा नमहं म्रिये ॥ २६ ॥