Book Title: Jindutta Charit
Author(s): Gunbhadrasuri, Tonkwala, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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ग
( पञ्चम-सर्ग )
श्रय ते यान्ति पश्यन्तो यान पात्रेण वारिधिम् । क्वचित्वेत्र लता विद्ध द्वारं भूमिभूतामिव ॥ १ ॥
नौका बढ रही है । सागर का जल उछल रहा है। वे यात्री यान पात्रों द्वारा समुद्र की शोभा देखते हुए जा रहे हैं। कहीं-कहीं प्रचुर देवाल समूह नेपलाके समान प्रतीत होता था । उछलता जल भूधर सा मालूम पडता ॥ १ ॥
न्यायोपेत नरेन्द्राभं क्वचित् समकरं क्वचित् । तिमिराजित मत्यर्थं मुनीनामिव मानसम् ॥ २ ॥
तो कहीं समरूप होकर न्यायी राजा की शोभा को धारण कर रहा था | कहीं अंधकार का भेदन कर मुनिराज के मानस समान स्वच्छ प्रतीत हो रहा था ॥ २॥
अनेकान्तमिवात्यन्स
बहुभंगो समाकुलम् । स मुक्ताहार मन्यत्र कान्ता स्तन तोपमम् ॥ ३ ॥
नाना तरंगों के उत्थान पतन से अनेकान्त सिद्धान्त का प्रतिपादन कर रहा हो ऐसा प्रतीत हो रहा था। अर्थात् अनेकान्त सिद्धान्त मुख्य गौरा कर वस्तु तत्त्व को यथार्थ प्रतिपादन करता है या प्रतिपादक की विवक्षा व प्रविवक्षानुसार वस्तु में रहने वाले अनेक धर्मों में से किसी को मुख्य और किसी धर्म को गौरा कर प्रतिपादन करता है । उसी प्रकार यह सागर भी ज्वार भाटे फेन, बबूले शादि द्वारा नाना स्वभावों को यथाक्रम से प्रदर्शित कर रहा था। कहीं जल करणों का समूह रत्नहार मोतियों की माला सा जान पडता तो कहीं कान्ता के स्तनरूपी तट सा दिखलाई पडता ॥ ३ ॥
मधः स्थित महा मूल्य माणिक्यं शंखकादिकम् दर्शयन्तं वहिर्भीत्या कृपणं बाधिनां पवचित् ॥ ४ ॥
जल के मध्यस्तल भाग में प्रसंख्य रत्न, महा मूल्यवान माणिक्य शङ्ख प्रादि भरे पड़े थे । वह उन्हें कृपण के समान कभी-कभी बाहर दिखला रहा था । प्रभिप्राय यह है कि जिस प्रकार कोई कंजूस व्यक्ति । १०१